Hindi Story,  Spritiual

ज्ञानी ज्ञान से और इच्छादि से मुक्त करते हैं

जीवन एक संगीत - हिंदी कहानी

बहाउद्दीन एक सूफी फकीर हुआ। जिस महानगरी में वह था, उसका सबसे बड़ा धनी व्यक्ति बहाउद्दीन के पास आता था और कहता था कि तुम सूर्य हो पृथ्वी पर! अंधेरा तुम्हें देख कर दूर हट जाता है! बहाउद्दीन हंसता था। जब भी वह आता, वह इसी तरह की बातें कहता कि तुम चांद की तरह शीतल हो, तुम अमृत की भांति हो। बहाउद्दीन हंसता। एक दिन जब वह आदमी चला गया, तो बहाउद्दीन के एक शिष्य ने कहा कि हमें बड़ी अजीब सी लगती है यह बात। वह आदमी कितने आदर के वचन बोलता है और आप ऐसा हंस देते हैं,मैनरलेस; यह शिष्टता नहीं मालूम पड़ती। वह आदमी इतने शिष्टाचार से सिर रखता है पैर पर, कहता है सूर्य हो आप, और आप एकदम हंस देते हैं, जैसे कोई गलती बात कह रहा हो।

बहाउद्दीन ने उस आदमी का हाथ पकड़ा और कहा, मेरे साथ चल। वे उस धनपति की दूकान पर गए। बहाउद्दीन ने सिर्फ अपनी टोपी बदल ली थी और कुछ न बदला था। उसकी दूकान पर गए सामान खरीदने। सामान खरीद कर लौट आए। रास्ते में बहाउद्दीन ने अपने शिष्य से कहा, देखा, उसको खयाल भी नहीं आया है कि मैं सूरज हूं। उसी से सामान खरीद कर लौट रहे हैं। पंद्रह मिनट उससे बातचीत हुई, उसने ठग भी लिया और माल भी कम दिया है। पर उसके शिष्य ने कहा, भूल हो सकती है; काम में व्यस्त था।

दूसरे दिन फिर बहाउद्दीन ने कहा कि चल। बहाउद्दीन तो पूरे साल, तीन सौ पैंसठ दिन अपनी तरह का आदमी था। वह शिष्य घबड़ा गया, वह कहने लगा, अब बस करो, मैं मान गया। पर उसने कहा कि नहीं। तीन सौ पैंसठ दिन पूरे रोज बहाउद्दीन उसकी दूकान पर जाता रूप बदल बदल कर, कुछ खरीद कर लाता रहा और उस शिष्य को भी घसीटता रहा। इस बीच वह आदमी भी आता रहा दस-पांच दिन में और कहता, तुम सूरज हो! अंधेरे में रोशनी हो जाती है! तुम अमृत हो! तुम्हारी किरण मिल जाती एक, तो मृत्यु का कहीं पता नहीं चलेगा!

तीन सौ पैंसठ दिन के बाद बहाउद्दीन ने कहा कि बंद कर बकवास! तीन सौ पैंसठ दिन रोज तेरे द्वार पर आया हूं। सूरज तो बहुत दूर, दीया भी दिखाई नहीं पड़ा। तूने इतना भी न कहा कि आप एक टिमटिमाते दीए हैं। तू सरासर झूठ बोल रहा है। तुझे सिर्फ इतना मतलब है कि बहाउद्दीन बड़ा आदमी है।

तो अगर आपको महावीर मिल जाएं, तख्ती सहित कि मैं महावीर हूं, तब तो आप फौरन झुक कर नमस्कार कर लें कि तीर्थंकर से मिलन हुआ। और नहीं तो पुलिस को आप खबर दे दें कि यह आदमी नग्न खड़ा हुआ है बंबई में और यह बात ठीक नहीं है।

अभी पीछे यहां संन्यासी इकट्ठे थे। तो एक संन्यासी हैं मेरे जो नग्न रहने के शौकीन हैं। फिर भी हमने उनको कहा था कि बंबई में तुम नग्न मत घूमना, तो वे बेचारे एक लंगोटी लगा कर यहां वुडलैंड में आए होंगे। तो मुश्किल हो गई और एक व्यक्ति ने मुझे आकर शिकायत की कि यह तो बहुत अजीब सी बात है कि एक आदमी लंगोटी लगाए यहां चला आए। और चमत्कार तो यह है कि वह आदमी भी दिगंबर जैन हैं, जिन्होंने मुझे शिकायत की। मैंने उनसे कहा कि अगर महावीर आ जाएं वुडलैंड में, तो क्या करोगे? यह तो बेचारा कम से कम लंगोटी लगाए था। वह कहने लगे कि महावीर की बात और है।

पहचानोगे कैसे? कोई तख्ती, बोर्ड लेकर चलेंगे वे और कितने लोग महावीर के वक्त महावीर को पहचाने?

हम भी करीब से गुजर जाते हैं बहुत बार। पर आंख हमारी बहुत और चीजों पर लगी है। जो निकट दिखाई पड़ता है, वह नहीं दिखता। और कई बार तो ऐसा होता है कि निकट होता है, इसीलिए दिखाई नहीं पड़ता।

लाओत्से कहता है, ज्ञानी इच्छादि से मुक्त कर देते हैं। वह इसीलिए ताकि जो निकट से भी निकटतम है, वह जो परमात्मा है, वह दिखाई पड़ जाए। लाओत्से यह नहीं कहता कि मोक्ष नहीं है; लाओत्से कहता है, मोक्ष की इच्छा नहीं हो सकती। लाओत्से यह नहीं कहता कि परमात्मा नहीं है; लाओत्से इतना ही कहता है, परमात्मा को चाहा नहीं जा सकता। जब कोई चाह नहीं होती, तब जो शेष रह जाता है, वह परमात्मा है।

बुद्ध यह नहीं कहते कि मोक्ष नहीं है। बुद्ध इतना ही कहते हैं कि तुम चाहो मत। तुम कुछ न चाहो, मोक्ष भी मत चाहो। फिर तुम मोक्ष में हो।

इस फर्क को समझ लें। मोक्ष को आप अपनी डिजायर का आब्जेक्ट, विषय नहीं बना सकते। मोक्ष आपकी विषय-वासना का आधार नहीं बन सकता। वह आपकी चाह का बिंदु नहीं हो सकता। वह आपका निशान नहीं बन सकता, आपकी चाह का तीर लग जाए उसमें। नहीं, जब आप मय तीर-कमान सब चाह को नीचे गिरा देते हैं, तो आप पाते हैं कि मोक्ष में आप खड़े हैं। असल में, आप सदा से मोक्ष में खड़े थे, लेकिन चाह की वजह से आप दूर-दूर भटकते थे। इच्छा के कारण आप कहीं और भटकते थे और मोक्ष यहीं है। परमात्मा है यहां निकट और इच्छा है दूर। इसलिए इच्छा और परमात्मा का मिलन नहीं हो पाता। इच्छा है भविष्य में और परमात्मा है वर्तमान में। इच्छा है कल और परमात्मा है आज।

इसलिए लाओत्से कहता है, ज्ञानी ज्ञान से और इच्छादि से वे मुक्त करते हैं।

“और जहां ऐसे लोग हैं, जो निपट जानकारी से भरे हैं, उन्हें ऐसी जानकारी के उपयोग से भी बचाने की यथाशक्य चेष्टा करते हैं।”

 

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