जीवन जल रहा है – ओशो
एक अमावस की गहरी अंधेरी रात्रि की बात है और एक छोटे से गांव की घटना। आधी रात्रि बीत गई थी और सारा गांव नींद में डूबा हुआ था। कुत्ते भी भौंक-भौंक कर सो गए थे कि अचानक एक झोपड़े से उठ रही रोने की और चिल्लाने की आवाज ने सभी को जगा दिया। अर्धनिद्रित लोग उस झोपड़े की ओर भागने लगे, बूढ़े और बच्चे–सभी। उस सोए गांव में एक विक्षिप्त सी गति आ गई। किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। फिर भी लोग उस झोपड़े के आस-पास इकट्ठे हो रहे थे। झोपड़े के भीतर से आवाज आ रही थीः ‘आग लगी है, मैं जल रही हूं, मेरा घर जल रहा है।’ कुछ लोग तो पानी भरी बाल्टियां ले-ले कर भी आ गए थे। लेकिन झोपड़े के आस-पास आग लगे होने का कोई भी चिह्न नहीं था। आग तो दूर, उस झोपड़े में एक दीया भी नहीं था।
वह एक गरीब बूढ़ी स्त्री की झोपड़ी थी। लोगों ने दरवाजे धकाए तो पाया कि खुले ही हुए हैं। कोई भाग कर लालटेन ले आया तो भीड़ भीतर गई। बूढ़ी स्त्री जोर-जोर से रो रही थी और छाती पीट रही थी और साथ ही वह चिल्लाती भी जाती थीः ‘आग लगी है, मेरे घर में आग लगी है।’
गांव के लोग यह दृश्य देख कर बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहाः क्या तुम पागल हो गई हो? आग कहां है? हम जरूर उसे बुझाएंगे, लेकिन वह है कहां? यह सुन वह बूढ़ी रोना बंद कर जोर-जोर से हंसने लगी और बोलीः मैं पागल नहीं हूं, पागल हो तुम, आग तुम्हारे घरों में लगी है और उसे बुझाने तुम यहां आए हो? जाओ और अपने घरों में आग को खोजो? मेरे भीतर भी आग लगी है, लेकिन उसे तुम देख कैसे सकोगे? और उसे तुम बुझाओगे भी कैसे? उसे तो मुझे ही बुझाना पड़ेगा। भीतर की आग स्वयं ही बुझानी पड़ती है। आग बाहर होती तो तुम जरूर उसे बुझा देते, लेकिन आग तो भीतर है। यह कह बूढ़ी फिर रोने लगी और चिल्लाने लगीः ‘मेरे घर में आग लगी है, मैं जल रही हूं…!’
मैं भी उस रात्रि उस गांव में उपस्थित था। और क्या आप भी उपस्थित नहीं थे? शायद आप उस घटना को भूल गए हों, लेकिन में नहीं भूला हूं। मैंने आपको देखा था कि आप व्यर्थ ही नींद तोड़े जाने के कारण उस बूढ़ी स्त्री पर नाराज होते हुए वापस सो गए थे। और सुबह जब आप उठे थे तो उस घटना को भूल गए थे। वह पूरा गांव ही भूल गया था, पूरी पृथ्वी ही भूल गई है। उस छोटे से गांव में ही तो सारी मनुष्यता का आवास है।
आप तो सो गए थे, लेकिन मैं फिर नहीं सो सका। उस बूढ़ी औरत ने सदा के लिए ही मेरी नींद तोड़ दी, क्योंकि मैंने जब आग खोजने के लिए भीतर झांका तो पाया कि आग तो नहीं थी, नींद थी और वह नींद ही आग थी। जीवन नींद में ही जल रहा है, वह निद्रा ही है दुख, वही है पीड़ा, वही है अग्नि, लेकिन आप उसे नहीं देख पाए, क्योंकि आप पुनः सो गए और सपने देखने लगे।
सपने नींद के साथी हैं, वे नींद को नहीं टूटने देते, वे तो अग्नि में घृत की भांति हैं। दुखद सपने जरूर थोड़ा-सा धुआं पैदा करते हैं और करवट लेने को मजबूर कर देते हैं, लेकिन सुखद सपनों की आशा में उन्हें सह लिया जाता है। और वे न हों तो सुखद सपने भी नहीं हो सकते हैं। क्योंकि उन्हीं की काली पृष्ठभूमि में तो सुखद सपनों की शुभ्र रेखाएं उभर पाती हैं। ऐसे सुख और दुख के सपने दो बैलों की जोड़ी की भांति नींद की गाड़ी को चलाए जाते हैं। और नींद में जीवन खोता है क्योंकि जो सोया है वह जीवित ही कहां है?
और जीवन के दुख की यह कथा है बहुत पुरानी। मनुष्य जितनी ही पुरानी है यह कथा, लेकिन जो कहता है, जीवन जल रहा है, वह पागल प्रतीत होता है और हम उससे पूछते हैं–कहां है आग? और हम पानी भरी बाल्टियां लेकर दौड़ते हैं कि आग को बुझा दें। लेकिन आग बाहर नहीं है, इसलिए बाहर ही देखने वाली आंखें नहीं देख पाती हैं। और बाहर नहीं है, इसलिए बाहर का पानी भी उसे कैसे बुझा सकता है?
लेकिन आग चाहे दिखाई पड़ती हो या न पड़ती हो लेकिन जीवन में उसकी जलन तो सभी को अनुभव होती है।
वह है तो जलाएगी ही! चाहे हम उसे देखें या न देखें। उसका जलाना हमारे देखने पर निर्भर नहीं है। वस्तुतः तो हम उसे नहीं देखते हैं इसलिए वह हमें जला पाती है। हमारा न देखना ही उसका होना है। हमारे अंधेपन में ही तो उसके प्राण हैं। और जब वह जलाती है और मनुष्य उस अदृश्य और अज्ञात अग्नि से झुलसता और पीड़ित होता है, तो बजाय यह खोजने के कि उस अदृश्य अग्नि का मूलस्रोत कहां है, वह पानी की खोज में दौड़ता है। यह पानी की खोज ही संसार है।
हम सब पानी की खोज में दौड़ रहे हैं। वह पानी चाहे धन का हो, चाहे यश का, चाहे मोक्ष का। पानी की दौड़ का एक अनिवार्य लक्षण है कि वह सदा बाहर होता है, और दूसरा अनिवार्य लक्षण है कि उसे पाने के लिए दौड़ना पड़ता है। क्योंकि जो बाहर है वह अनिवार्यतः दौड़ता है। और सबसे बड़ा मजा यह है कि जो पानी के लिए दौड़ता है उसके भीतर की आग और जोर पकड़ती जाती है। क्योंकि दौड़ से वह और उत्तप्त होता है, और दौड़ से उसका ज्वर और तीव्र होता है। और फिर जितना वह दौड़ता है उतनी आग तीव्र होती है। और जितनी आग तीव्र होती है वह उतना ही और दौड़ता है। ऐसे दुष्चक्र पैदा हो जाता है। क्या इस चक्र का नाम ही संसार नहीं है?
और एक तो पानी मिलता नहीं है, क्योंकि अधिक सरोवर मृग-मरीचिका सिद्ध होते हैं। और यदि पानी मिल भी जाए तो भी व्यर्थ सिद्ध होता है, क्योंकि बाहर का पानी भीतर की आग को कैसे मिटा सकता है? अर्थात जिन्हें पानी मिल जाता है वे, और जिन्हें पानी नहीं मिलता वे, अंततः समान ही असफल सिद्ध होते हैं।
संसार और सफलता का कहीं भी मिलन नहीं है क्योंकि संसार का दुष्चक्र असफल होने को आबद्ध ही है। संसार की असफलता उसकी आंतरिक अनिवार्यता है।
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