विकास की अंतिम संभावना, विकास का जो अंतिम रूप है, विकास की जो हम कल्पना कर सकते हैं, वह ईश्वर है।
यह जगत भी अपने समस्त रूपों में एक गहन इच्छा की सूचना देता है। यहां कोई भी चीज अकारण होती मालूम नहीं हो रही है। यहां प्रत्येक चीज विकासमान होती मालूम पड़ती है।
डार्विन ने जब पहली बार विकास का, इवोलूशन का सिद्धात जगत को दिया, तो पश्चिम में विशेषकर ईसाइयत ने भारी विरोध किया। क्योंकि ईसाइयत का खयाल था कि विकास का सिद्धात धर्म के खिलाफ है। लेकिन हिंदू चिंतन सदा से विकास के सिद्धात को धर्म का अंग मनता रहा है।
असल में विकास के कारण ही पता चलता है कि जगत में परमात्मा है। विकास के कारण ही पता चलता है कि जगत किसी गहन इच्छा से प्रभावित होकर गतिमान हो रहा है। जगत ठहरा हुआ नहीं है, स्टैटिक नहीं है डायनैमिक है। यहां प्रत्येक चीज बढ़ रही है, और प्रत्येक चीज ऊपर उठ रही है। चीजें ठहरी हुई नहीं हैं, चीजों के तल रूपांतरित हो रहे हैं। और यह जो विकास है, इररिवर्सिबल है, यह पीछे गिर नहीं जाता। एक बच्चे को हम दुबारा बच्चा कभी नहीं बना सकते। कोई उपाय नहीं है। क्योंकि विकास सुनिश्चित रूप से उसकी आत्मा का हिस्सा हो जाता है।
आप जो भी जान लेते हैं, उसे फिर भुलाया नहीं जा सकता। आपने जो भी जान लिया, उसे फिर मिटाया नहीं जा सकता। क्योंकि वह आपकी आत्मा का सुनिश्चित हिस्सा हो गया। वह आपकी आत्मा बन गई। इसलिए इस जगत में जो भी हम हो जाते हैं, उससे नीचे नहीं गिर सकते।
अगर यह संयोग मात्र है, तो ठीक है। एक का किसी दिन सुबह उठकर पाए कि बच्चा हो गया! एक इतनी सुबह उठे और पाए कि सब अंधकार हो गया; अज्ञान ही अज्ञान छा गया! एक मूर्तिकार सुबह उठकर पाए कि उसकी छेनी—हथौड़ी को हाथ पकड़ नहीं रहे, हाथ छूट गए हैं! उसे कुछ खयाल ही नहीं आता कि कल वह क्या था!
नहीं, हमारा आज हमारे समस्त कल और अतीत के ज्ञान और अनुभव को अपने में समा लेता है, निविष्ट कर लेता है। न केवल अतीत को निविष्ट कर लेता है, बल्कि भविष्य की तरफ पंखों को भी फैला देता है।
जगत एक सुनिश्चित विकास है, एक कांशस इवोल्यूशन। अगर जगत विकास है, तो उसका अर्थ है कि वह कहीं पहुंचना चाह रहा है। विकास. का अर्थ होता है, कहीं पहुंचना। जीवन कहीं पहुंचना चाह रहा है। जीवन किसी यात्रा पर है। कोई गंतव्य है, कोई मंजिल है, जिसकी तलाश है। हम यूं ही नहीं भटक रहे हैं। हम कहीं जा रहे हैं। जाने— अनजाने, पहचानते हों, न पहचानते हों, हमारा प्रत्येक कृत्य हमें विकसित करने की दिशा में संलग्न है।
और ध्यान रहे, हमारे जीवन में जब भी आनंद के क्षण होते हैं, तो वे वे ही क्षण होते हैं, जब हम कोई विकास का कदम लेते हैं। जब भी हमारी चेतना किसी नए चरण को उठाती है, तभी आनंद से भर जाती है। और जब भी हमारी चेतना ठहर जाती है, अवरुद्ध हो जाती है, उसकी गति खो जाती है और कहीं चलने को मार्ग नहीं मिलता, तभी दुख, तभी पीड़ा, तभी परतंत्रता, तभी बंधन का अनुभव होता है। मुक्ति का अनुभव होता है विकास के चरण में।
जब बच्चा पहली दफा जमीन पर चलना शुरू करता है, तब आपने उसकी प्रफुल्लता देखी है? जब वह पहली दफा पैर रखता है जमीन पर, और पहली दफा डुलता हुआ, कंपता हुआ, घबड़ाया हुआ, भयभीत, झिझकता हुआ, पहला कदम उठाता है, और जब पाता है कि कदम सम्हल गया और जमीन पर वह खड़े होने में समर्थ है, तो आपको पता होना चाहिए विकास का एक बहु,त बड़ा कदम उठ गया है। यह सिर्फ पैर चलना हीं नहीं है, आत्मा को एक नया भरोसा मिला, आत्मा को एक नई श्रद्धा मिली; आत्मा ने पहली दफा अपनी शक्ति को पहचाना। अब यह बच्चा दुबारा वही नहीं हो सकेगा, जो यह घुटने के बल चलकर होता था। अब यह दुबारा वही नहीं हो सकेगा। अब यह सारी दुनिया भी इसको घुटने के बल झुकाने में असमर्थ हो जाएगी। एक बड़ी ऊर्जा का जन्म हो गया।
इसलिए जब कोई हार जाता है, तो हम कहते हैं, उसने घुटने टेक दिए। घुटने टेकना हारने का प्रतीक हो जाता है। लेकिन कल तक यह बच्चा घुटने टेककर चल रहा .था। इसे पता ही नहीं था कि मैं क्या हो सकता हूं मैं भी खड़ा हो सकता हूं, अपने ही बल मैं भी चल सकता हूं। यह दुनिया की पूरी की पूरी ताकत, सारी दुनिया की शक्ति भी चेष्टा करे, तो मुझे गिरा नहीं पाएगी।
इस बच्चे के भीतर इनटेशनलिटी, एक तीव्र इच्छा का जन्म हो गया। जिस दिन यह बच्चा पहली बार बोलता है और पहला शब्द निकलता है इसका—तुतलाता हुआ, डांवाडोल, डरा हुआ—उस दिन इसके भीतर एक नया कदम हो गया। जिस दिन बच्चा पहली बार बोलता है, उसकी प्रफुल्लता का अंत नहीं है। अपने को अभिव्यक्त करने की आत्मा ने सामर्थ्य जुटा ली।
इसलिए बच्चे अक्सर एक ही शब्द को—जब वे बोलना शुरू करते है—तो दिनभर दोहराते हैं। हम समझते हैं कि सिर खा रहे हैं, परेशान कर रहे हैं, वे केवल अभ्यास कर रहे हैं अपनी स्वतंत्रता का। वह जो उन्हें अभिव्यक्ति मिली है, वे बार—बार उसको छूकर देख रहे हैं कि ही, मैं बोल सकता हूं! अब मैं वही नहीं हूं—मौन, बंद। अब मेरी आत्मा मुझसे बाहर जा सकती है। नाउ कम्मुनिकेशन इज पासिबल। अब मैं दूसरे आदमी से कुछ कह सकता हूं। अब मैं अपने में बंद कारागृह नहीं हूं। मेरे द्वार खुल गए!
वह बच्चा सिर्फ अभ्यास कर रहा है। अभ्यास ही नहीं कर रहा है, वह बार—बार मजा ले रहा है। वह जिस शब्द को बोल सकता है, उसे बोलकर वह बार—बार मजा ले रहा है। वह कह रहा है कि ठीक! अब यह बच्चा दुबारा वही नहीं हो सकता, जो यह एक शब्द बोलने के पहले था। एक नई दुनिया में यात्रा शुरू हो गई। विकास का एक चरण हुआ।
न केवल हम ठहरे हुए ही नहीं हैं, हम प्रतिपल विकासमान हैं। और एक—एक व्यक्ति ही नहीं, पूरा जगत विकासमान है। यह जो विकास की अनंत धारा है, अगर है, तो ही जगत में ईश्वर है। क्योंकि ईश्वर का अर्थ है—टेल्हार्ड डि चार्डिन ने एक शब्द का प्रयोग किया है, दि ओमेगा प्याइंट। अंग्रेजी में अल्फा पहला शब्द है और ओमेगा अंतिम। अल्फा का अर्थ है, पहला; ओमेगा का अर्थ है, अंतिम। चार्डिन ने कहा है कि गॉड इज दि ओमेगा ज्वाइंट। ईश्वर जो है. वह अंतिम बिंदु है विकास का। विकास की अंतिम संभावना, विकास का जो अंतिम रूप है, विकास की जो हम कल्पना कर सकते हैं, वह ईश्वर है।
ओशो
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