आदमी बहुत अदभुत है। जन्म-जन्म तक शब्दों में जीता है|
एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने बहुत धन कमा लिया। उसने सोचा कि अब विश्राम करें। तो एक गांव में उसने शौकिया जमीन ले ली। खेती-बाड़ी करके कुछ कमाने का सवाल न था। कमाई अब जरूरत से ज्यादा हो चुकी थी। इस समय सबसे बड़ी कमाई उनकी ही हो सकती है, जो लोगों के पागलपन को राहत देते हैं। क्योंकि जमीन पर आज सर्वाधिक पागल लोग हैं। इस वक्त सबसे बड़ी कमाई की संभावना हीरे की खदानों में नहीं है, आदमी की खोपड़ी में है। आदमी पागल हुआ जा रहा है। और मनोवैज्ञानिक किसी पागलों को ठीक कर पाते हों, ऐसा प्रमाण अब तक मिला नहीं। हां, इतना हो जाता है कि पागल को आश्वस्त कर पाते हैं। अगर दो साल किसी साइकियाट्रिस्ट के पास कोई पागल जाए, तो ऐसा नहीं कि दो साल बाद वह ठीक हो जाता है, बल्कि दो साल बाद वह कहने लगता है, यह पागलपन स्वाभाविक है।
काफी धन कमा लिया था। फसल बोने का मौका आया, तो उसने फसल बोनी शुरू की। उसने जमीन खुदवा डाली, बक्खर चलवा दिए, दाने फेंके। लेकिन सारे गांव के कौवे आकर उसके खेत के दाने चुनने लगे। एक दिन दाने फेंके, कौवे चुन गए। दूसरे दिन दाने फेंके, कौवे चुन गए। तीसरे दिन दाने फेंके…। फिर उस मनोवैज्ञानिक को संकोच भी लगा, किसी से पूछे; संकोच लगा कि साधारण बुद्धिहीन किसान, उनसे पूछे कि क्या है राज! कोई उपाय न देख कर पड़ोस के एक किसान से, जो रोज उसको देखता और हंसता था, उसने पूछा कि बात क्या है?
वह किसान आया। उसने दाने फेंकने का इशारा किया। जैसे दाने फेंके, ऐसे उसने हाथ घुमाए; लेकिन फेंका कुछ नहीं। कौवे आए, बड़े नाराज हुए। चीखे-चिल्लाए, वापस उड़ गए। दूसरे दिन उसने फिर मुद्रा की दाने फेंकने की। कौवे फिर आए, आज थोड़े कम आए। नाराज हुए, आज थोड़े कम नाराज हुए। चले गए। तीसरे दिन उसने फिर वही किया। चौथे दिन उसने दाने फेंके। कौवे नहीं आए। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, अदभुत! राज क्या है? उस किसान ने कहा, जस्ट प्लेन साइकोलॉजी। छोटा सा मनोविज्ञान। कभी सुना है नाम मनोविज्ञान का? खाली हाथ तीन दिन, कौवे भी समझ गए कि खाली हाथ है।
लेकिन आदमी बहुत अदभुत है। जन्म-जन्म तक शब्दों में जीता है। जस्ट प्लेन साइकोलॉजी कि शब्द खाली हैं, समझ में नहीं आता। शब्द के भीतर कुछ भी नहीं है, समझ में नहीं आता। कोई आपसे कह देता है, नमस्कार! मन मान लेता है कि आज श्रद्धा मिली है।
श्रद्धा इतनी आसान चीज नहीं है, नमस्कारों से मिल जाए। अक्सर यह होता है कि नमस्कार श्रद्धा को छिपाने का ढंग है। कहीं चेहरे का असली भाव पता न चल जाए, आदमी हाथ जोड़ कर नमस्कार कर लेता है। या हाथ जोड़ने में वह दूसरा आदमी चूक जाता है असली आदमी को देखने से कि यह आदमी क्या सोच रहा था। मन में सोच रहा था, इस दुष्ट की शक्ल सुबह-सुबह कहां दिखाई पड़ गई! नमस्कार करने में उस आदमी को धोखा हो जाता है, नमस्कार देख कर अपने रास्ते पर चला जाता है।
आप रास्ते पर रोज निकलते हैं और एक आदमी आपको प्रीतिकर लगता है। जब भी आप कहते हैं हलो, वह भी जोर से हलो करके जवाब देता है। आज सुबह उसने जवाब नहीं दिया। पता है, आपको क्या होगा? आपका सब रुख बदल जाएगा। आपने कहा हलो, उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया; वह चला गया। आप उस आदमी का इतिहास फिर से लिखेंगे अपने भीतर कि अच्छा, एक मकान खरीद लिया तो अकड़ आ गई! यह मकान बहुत पहले खरीद चुका है, इसका आपको कभी खयाल न आया था। किड़ियों को मरते वक्त पर आ जाते हैं। अब इस आदमी का आप फिर से जीवन-चरित्र निर्मित करेंगे। वह एक हलो कह देता, तो पुराना जीवन-चरित्र चलता। एक छोटा सा हलो इतना फर्क लाता है! शब्द इतना मूल्यवान है आदमी को!
हम शब्द से ही जीते हैं, शब्द ही खाते हैं, शब्द में ही सोते हैं। इसको पश्चिम में लोग समझ गए हैं। तो वे कहते हैं कि चाहे उचित हो या न उचित हो, आदमी कुछ करे या न करे, तुम थैंक यू तो उसे कह ही देना। हम अपने मुल्क में अभी शब्द के बाबत इतने समझदार नहीं हैं। अगर पत्नी पति के लिए चाय ले आती है, तो पति धन्यवाद या शुक्रिया नहीं करता। करना चाहिए। क्योंकि एक शुक्रिया से इतिहास बदल जाता है। बिलकुल करना चाहिए। शुक्रिया से बिना शक्कर की चाय मीठी मालूम पड़ती है। अगर शुक्रिया न हो तो चाय कड़वी हो जाती है, चाहे कितनी ही शक्कर पड़ी हो, सब बात ही बदल जाती है।
शब्द के साथ हमारा इतना अंतर्संबंध क्यों है? मात्र इसीलिए है कि हमारे पास शब्द के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हमारे पास सत्व जैसा कुछ भी नहीं है। हम बिलकुल खाली हैं। खाली लाओत्से या शून्य के अर्थों में नहीं, खाली दरिद्र और दीन के अर्थों में। खाली उस अखंड शक्ति के अर्थों में नहीं, खाली उस अर्थों में, जिनके हाथ में कुछ भी नहीं है, शून्य भी जिनके हाथ में नहीं है। हम इस तरह खाली हैं और हम शब्द से ही जीते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक सड़क पर गिर पड़ा है। धूप है तेज। भीड़ इकट्ठी हो गई। नसरुद्दीन दम साधे पड़ा है। किसी ने कहा कि भागो, दौड़ो, एक प्याली अगर शराब मिल जाए तो काम हो जाए। नसरुद्दीन ने एक आंख खोली और कहा, एक प्याली! कम से कम दो प्याली तो कर दो। पर लोगों ने कहा, अब मत जाओ, कोई जरूरत नहीं, नसरुद्दीन होश में आ गया है। शब्द ने ही काम कर दिया, अब शराब नहीं चाहिए।
नसरुद्दीन फर्स्ट एड की ट्रेनिंग ले रहा था। तो जब उसकी ट्रेनिंग पूरी हो गई तो उसके शिक्षक ने पूछा कि अगर रास्ते पर कोई अचानक गिर जाए तो तुम क्या करोगे? तो उसने कहा, एक प्याली शराब बुलाऊंगा। लेकिन उस अधिकारी ने पूछा कि अगर शराब न मिल सके, तो तुम क्या करोगे? तो उसने कहा, मैं उसके कान में प्रामिस करूंगा कि पीछे पिला दूंगा, फिलहाल उठ जा। क्योंकि ऐसा एक दफे मेरे साथ हो चुका है। सिर्फ शब्द सुन कर मुझे होश आ गया था।
शब्द से हम जी रहे हैं। यद्यपि लाओत्से को भी कहना पड़ता है, तो शब्दों से ही कहना पड़ता है। लाओत्से भी बोलता है, तो शब्द से ही बोलता है। इससे एक बड़ी भ्रांति होती है। भ्रांति यह होती है कि लाओत्से भी तो शब्द से ही बोलता है और शब्द के खिलाफ बोलता है।
निश्चित ही, अगर हमें दूसरे से कुछ कहना है, तो शब्द का उपयोग है। लेकिन हम इतने पागल हो गए हैं कि हमें अपने से भी कुछ कहना हो, तो भी हम शब्द का ही उपयोग करते हैं। अपने से कहने के लिए तो शब्द की कोई भी जरूरत नहीं है। हम भीतर अपने से ही बोलते रहते हैं। चौबीस घंटे आदमी बोल रहा है। जब दूसरे से बोल रहा है, तब तो बोल ही रहा है; जब किसी से नहीं बोल रहा है, तो अपने से ही बोल रहा है। अपने को ही बांट कर बोलता रहता है। यह चौबीस घंटे बोलना भीतर जंग पैदा कर देता है। और चौबीस घंटे बोलते-बोलते, बोलते-बोलते शब्द इतने इकट्ठे हो जाते हैं कि शब्दों के बीच में जो आत्मा में छिपा हुआ शून्य है, उसकी हमें कोई खबर नहीं रह जाती। शब्द की इस ऊपरी पर्त को हटाना पड़े, तो ही हम भीतर के शून्य से परिचित होते हैं।
ओशो
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