एक किसान की प्रेरक कहानी
एक किसान ने बड़े दिन तक परमात्मा से पूजा की, प्रार्थना की। परमात्मा ने दर्शन दिये, तो उसके सामने कहा कि बस, मुझे एक ही बात तुमसे कहनी है। तुम्हें किसानी नहीं आती। बेवक्त बादल भेज देते हो। जब बादल की जरूरत होती है, हम तड़फते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं, तब बादलों का कोई पता नहीं! कभी ऐसी वर्षा कर देते हो कि बाढ़ आ जाती है, कभी ऐसा खाली छोड़ देते हो कि पानी को तरस जाते हैं। फसल खड़ी होती है–तूफान, आंधी, ओले! तुम्हें कुछ पता है? खेती तुमने कभी की नहीं। तो कम से कम खेती के संबंध में तुम मेरी सलाह मानो। परमात्मा हंसा उस भोले किसान पर। उसने कहा, ठीक! तो तू क्या चाहता है? एक साल तेरी मर्जी से होगा। किसान ने कहा, तब ठीक है।
एक साल किसान ने मर्जी से जो चाहा, जिस दिन चाहा, वैसा हुआ। जब उसने पानी मांगा, पानी गिरा। जब उसने धूप मांगी, तब धूप आयी। गेहूं की बालें इतनी बड़ी कभी भी न हुई थीं। आदमी ढंक जाए, खो जाए, इतनी बड़ी गेहूं की बालें हुईं। उसने कहा, अब देख! सोचा मन में, अब दिखाऊंगा परमात्मा को। बालें तो बहुत बड़ी हुईं, लेकिन जब फसल काटी, तो बालों के भीतर गेहूं बिलकुल न थे, पोच थे। बहुत परेशान हुआ। परमात्मा से कहा, यह क्या हुआ? क्योंकि मैंने इतनी सुविधा दी। जब पानी की जरूरत थी, तब पानी; जब धूप की जरूरत थी, तब धूप। आंधी, तूफान, ओले इत्यादि तो मैंने काट ही दिये। कोई तकलीफ तो दी ही नहीं। लेकिन बीज आये ही नहीं! हुआ क्या है?
परमात्मा ने कहा, पागल! सिर्फ सुविधा से कहीं कोई चीज बनी है, निर्मित हुई है? सुविधा के साथ साधना भी चाहिए। तूने सुविधा तो दे दी, लेकिन साधना का कोई अवसर न दिया। तूने सम्हाला तो, लेकिन चोटें-चपेटें न दीं। आंधी भी चाहिए, ओले भी चाहिए, तूफान भी चाहिए; सहारा भी चाहिए। इन दोनों के बीच में गेहूं पैदा होता, पकता। बल पैदा होता है चुनौती से।
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