जन्म से कोई बुद्ध नही होता! बुद्धत्व तो एक यात्रा है!!
मनुष्य एक संभावना है, सत्य नहीं; बीज है, फूल नहीं। फूल हो सकता है, पर होने की कोई अनिवार्यता नहीं। बीज बीज की भांति मर भी सकता है। बीज बीज की भांति सड़ भी सकता है। सभी बीज फूल नहीं हो जाते; सभी बीज फूल हो सकते थे। ऐसा ही मनुष्य है।
सभी मनुष्य बुद्ध हो सकते हैं। सभी की संभावना है। सभी के भीतर परमात्मा का अवतरण हो सकता है। लेकिन सभी हो नहीं पाते, इस बात को भूल मत जाना!
जन्म से ही कोई बुद्ध नहीं है। बुद्धत्व यात्रा है। जन्म और मृत्यु के बीच जो महा अवसर है, उसका जो सम्यक उपयोग कर लेगा, उसे बुद्धत्व भेंट में मिलता है। वह अस्तित्व के द्वारा दिया गया पुरस्कार है। ऐसे ही धक्के खाते-खाते कोई बुद्ध नहीं हो जाता।
संकल्प चाहिए, समर्पण चाहिए, संघर्ष चाहिए, साधना चाहिए! साधना की प्रक्रिया से गुजरे बिना, बीज बीज ही रह जाएगा। बीज भूमि में पड़े, भूमि में गले, मिटाए अपने को, तो अंकुरण होता है।
ऐसे ही व्यक्ति को साधना की भूमि चाहिए–गले, मिटाए अपने को! राख कर दे अपने अहंकार को। अपनी अस्मिता को पोंछ डाले। तो अंकुरण होता है–अपूर्व प्रसाद का, अपूर्व आनंद का! जब तक उस अंकुरण को उपलब्ध न हो जाओ तब तक सोचना–जन्मे तो जरूर, अभी जीवन नहीं मिला। तब तक एक क्षण को भूलना मत, क्योंकि जितने क्षण भूले गए, भूल में गए, उतने ही व्यर्थ गए। तब तक सोते-जागते स्मरण रखना कि जिंदगी के हाथ से समय की धारा बही जाती है। कौन जाने, आनेवाले क्षण मौत द्वार पर दस्तक दे! इसके पहले कि मौत आए, बुद्धत्व आना ही चाहिए।
ऐसा संकल्प सघन करो! ऐसी अभीप्सा जगाओ। तो ही तुम्हारा वास्तविक जन्म हो पाएगा। तुम द्विज बनोगे। तुम्हारा दूसरा जन्म होगा। पहला जन्म तो नाममात्र का जन्म है। पहला जन्म तो जीवन की भूमिका-मात्र है। क, ख, ग! उसे सब मत समझ लेना। उस क, ख, ग से, उस वर्णमाला से वेद का निर्माण किया जा सकता है, उपनिषदों का जन्म हो सकता है। गीताएं आविर्भूत होती हैं–उसी वर्णमाला से! और यह भी ध्यान रहे कि जिस वर्णमाला से उपनिषदों के अमृत वचन पैदा होते हैं, उसी वर्णमाला से गालियां भी निर्मित हो जाती हैं। और वर्णमाला वही है।
जिस जीवन की संपदा को कुछ लोग बुद्धत्व के अमृत में बदल लेते हैं, कुछ लोग उसी अमृत की संभावना को जहर में बदल लेते हैं। अधिक लोग दुःखी दिखायी पड़ते हैं; उन्होंने अपने जीवन को जहर में बदल लिया है। अधिक लोग दुःखी ही जीते हैं, दुःखी ही समाप्त होते हैं। उनके जीवन में कांटों के अतिरिक्त न कभी कोई फूल खिलते, न कोई सुवास उठती। उनके अंतरंग में कभी कोई पक्षी गीत नहीं गाते। उनकी जीवन-वीणा ऐसी ही पड़ी रह जाती है; वे कभी उसका तार नहीं छेड़ पाते।।
ओशो
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