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मनुष्य की त्रिमूर्ति -विज्ञान, काव्य और धर्म

जीवन एक संगीत - हिंदी कहानी

यह मनुष्य की त्रिमूर्ति है–विज्ञान, काव्य, धर्म। ये मनुष्य के तीन चेहरे हैं। इन किसी एक चेहरे से मत बंध जाना। इन तीनों को जानना; और तीनों से मुक्त भी अपने को जानना। इन तीनों को जानना; और जानने वाला सदा ही अतिक्रमण कर जाता है, जानने वाला कभी भी दृश्य नहीं बनता, द्रष्टा ही रहता है, उसे दृश्य बनाने का कोई उपाय नहीं है–ऐसा भी जानना। तब तुम्हारी मंजिल पूरी हुई। तब यह जीवन की यात्रा अपने अंतिम पड़ाव पर आ गई। अब तुम रुक सकते हो। अब कहीं और जाने को नहीं, कहीं कुछ और पाने को नहीं। पाने योग्य पा लिया गया, जानने योग्य जान लिया गया। तब गहन परितोष पैदा होता है।

और उसी परितोष में परमात्मा के प्रति धन्यवाद उठता है। जैसे फूलों से गंध उठे! जैसे धूप जले और धुआं, सुगंधित धुआं आकाश की तरफ उठे! कि दीये की ज्योति आकाश की तरफ उठे! ऐसे ही तुम्हारे भीतर एक अनिर्वचनीय रूप में, कही न जा सके, शब्द में न बांधी जा सके, ऐसी अभिव्यंजना होती है धन्यवाद की। शब्द भी नहीं बनते; बस कृतज्ञता में सिर झुक जाता है!

मैं इसे मनुष्य का अखंड रूप मानता हूं। मेरी दृष्टि में यह भविष्य का मनुष्य है, जिसके आगमन की जोर से प्रतीक्षा की जा रही है। क्योंकि अगर वह नहीं आया, तो पुराना मनुष्य तो सड़ गया है। पुराना मनुष्य खंडित मनुष्य है। एक-एक हिस्से को लोगों ने पकड़ लिया है। पश्चिम ने पकड़ लिया विज्ञान को, पूरब ने पकड़ लिया धर्म को; दोनों अधमुर्दा हालत में हैं, अर्धजीवित। पश्चिम मर रहा है, क्योंकि शरीर तो है, धन है, पद है, लेकिन आत्मा नहीं है। और पूरब मर रहा है, क्योंकि आत्मा की बातचीत तो है, लेकिन देह खो गई है। दीनता है, दरिद्रता है, भुखमरी है। पेट भूखा है; आत्मा की बात भी करो, तो कब तक करो! और कितनी ही समृद्धि तुम्हारे पास हो, अगर आत्मा ही नहीं है, तुम ही नहीं हो, तो तुम्हारी समृद्धि केवल तुम्हें अपनी दरिद्रता की याद दिलाएगी, और कुछ भी नहीं। पश्चिम बाहर से समृद्ध, भीतर से दरिद्र हो गया; पूरब ने भीतर की समृद्धि में बाहर की दरिद्रता मोल ले ली। यह खंड-खंड का चुनाव था। यह चुनाव अशुभ हुआ।

नास्तिकों ने मान लिया कि पदार्थ सब कुछ है, परमात्मा कुछ भी नहीं। और आस्तिकों ने मान लिया कि परमात्मा सब कुछ है, पदार्थ तो माया है, झूठ है, असत्य है। दोनों ने भूल की है। और दोनों की भूल का दुष्परिणाम सारी मनुष्य-जाति भोग रही है।
मैं नास्तिक की नास्तिकता लेता हूं, आस्तिक की आस्तिकता लेता हूं। मैं नास्तिक और आस्तिक को तुम्हारे भीतर जोड़ देना चाहता हूं। मैं पूरब को और पश्चिम को एक कर देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं, यह पृथ्वी एक हो। और इस पृथ्वी के एक होने की संभावना तभी है, जब मनुष्य भीतर अखंड हो। मनुष्य अखंड हो सकता है; होना चाहिए; होना उसकी नियति है। और जब तक न होगा, तब तक पीड़ा है, तब तक विषाद है, तब तक दुख है।

मेरा संन्यासी संसार में रहेगा और परमात्मा में भी। और दोनों के मध्य जो सेतु है–काव्य का, सौंदर्य का, प्रेम का–उसे भी सजाएगा, उसे भी संवारेगा। निश्चित ही, यह अखंड मनुष्य किसी को भी स्वीकृत नहीं होगा। नास्तिक इसका विरोध करेंगे, आस्तिक इसका विरोध करेंगे। धार्मिक इसका विरोध करेंगे, अधार्मिक इसका विरोध करेंगे। पूरब में इसकी निंदा होगी, पश्चिम में इसकी निंदा होगी। मगर इन सारी निंदाओं के बावजूद भी इस अखंड मनुष्य के आने का क्षण आ गया है, इसे अब रोका नहीं जा सकता।

पुराना मनुष्य सड़ गया है। उसके दिन लद गए। पुराने धर्म, पुराने सिद्धांत, पुराने शास्त्र, पुरानी परंपराओं और लीकों पर अब और आगे नहीं चला जा सकता। हमने अपने को बहुत घसीट लिया और हमने अपने हाथ अपने लिए बहुत नर्क निर्मित कर लिया। मैं पुकार देता हूं: अब उस अतीत के बाहर आ जाओ! जैसे सांप अपनी पुरानी चमड़ी को छोड़ कर सरक जाता है और पीछे लौट कर भी नहीं देखता, ऐसे ही तुम भी पुराने को छोड़ कर सरक आओ।

 

नई सुबह हो रही है! नया दिन आ रहा है! नये मनुष्य का दिन आ रहा है! मैं नये मनुष्य की घोषणा करता हूं! और तुम्हें बनना है वह नया मनुष्य। तुम्हें होना है उस नये मनुष्य की पहली किरण। तुम्हें उस नये मनुष्य को रूप देना है, आकृति देनी है, यथार्थ देना है।

ओशो

 

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