एक समस्या भी कोई व्यक्ति हल कर ले, उसकी सारी समस्याएं हल हो जाती हैं – ओशो
जीवन की सारी समस्या इस एक बात में ही छिपी है कि जब तुम हल कर सकते हो तब तुम हल नहीं करते। जब बात को रोक देना आसान था
तब तुम बढ़ाए चले जाते हो। और जब बात सीमा के बाहर निकल जाती है तब तुम्हें होश आता है। जब कुछ भी नहीं किया जा सकता तब तुम जागते हो। जब कुछ किया जा सकता था तब तुम आलस्य में पड़े विश्राम करते रहे।
तब हजार समस्याएं इकट्ठी होती चली जाती हैं, उन समस्याओं में दबे तुम खंड-खंड, छितर-बितर जाते हो। फिर तुम्हारे जीवन-सूत्र का जो संबंध है, तुम्हारे भीतर की अंतरात्मा से जो तुम्हारी कड़ी है, उसका ओर-छोर खो जाता है। तब तो तुम छोटी सी समस्या भी हल करने में असमर्थ हो जाते हो। क्योंकि तुम्हारा मन एक विभ्रम हो जाता है, एक कनफ्यूजन।
वहां इतनी समस्याओं का ढेर लगा पड़ा होता है। उन समस्याओं से दबे तुम सारी सामर्थ्य खो देते हो। तुम्हारा आत्मविश्वास भी तिरोहित हो जाता है। जो कुछ भी हल न कर पाया, वह कुछ हल कर सकेगा, यह भरोसा भी टूट जाता है। तुम समझने लगते हो कि अपने से हल होने वाला है ही नहीं। और एक बार ऐसी दीनता आ गई कि तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन गई। फिर तो तुम उसे भी हल न कर पाओगे जिसे बच्चे हल कर लेते हैं। हल करने का भरोसा और श्रद्धा ही नष्ट हो गई।
इसलिए लाओत्से के इस सूत्र को बहुत गौर से समझना। यह ठीक तुम्हारे लिए है। इसके विपरीत ही तुम करते रहे हो।
पहली दफा मुझे, जब कि लाओत्से का कोई पता भी न था, एक अजीब से आदमी से इस सूत्र की समझ मिली थी। मैं जब विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था तो एक आदमी था गांव में जिसको लोग बन्नू पागल कहते थे। मैं उसमें आकर्षित हो गया था। क्योंकि मुझे वह पागल जैसा नहीं मालूम पड़ता था। भिन्न था; पागल जरा भी नहीं था। लोगों से उलटा था; पागल जरा भी नहीं था। लोगों को भला मैं पागल कह सकता, उस आदमी को पागल कहना मुश्किल था। क्योंकि उस जैसी प्रसन्नता! उसे कभी मैंने रोते, उदास नहीं देखा। उसकी चाल और उसकी मस्ती, सब खबर देती थीं कि कहीं भीतर वह आदमी गहरे में जड़ें जमा लिया है। धीरे-धीरे, वह साधारणतः किसी से बोलता नहीं था, बाद में जब मेरी उससे निकटता बढ़ गई और उसने मुझसे बोलना भी शुरू कर दिया और वह जब मेरी प्रतीक्षा भी करने लगा और जब हम दोनों सांझ-सुबह घूमने भी जाने लगे, तब मैंने उससे कहा कि लोगों से बोलते क्यों नहीं हो? तो उसने मुझे कहा, न बोलने में सुविधा है; बोले कि फंसे। बोलने में उपद्रव है।
एक दिन सांझ घूमते वक्त वह अचानक रुक कर खड़ा हो गया और उसने एक चांटा अपने गाल पर मार लिया। तो मैंने उससे पूछा कि यह क्या किया? यह क्या हुआ? उसने कहा, जब बात रुक सकती हो तभी रोक देना ठीक है। मुझे किसी के प्रति क्रोध आ रहा था। अब मैंने बांके बिहारीलाल जी को ठीक कर दिया।
वह अपने को सदा सम्मान से ही पुकारता था: बांके बिहारीलाल जी। लोग उसको बन्नू पागल कहते थे। वह मुस्कुराया और उसने कहा, कहो बांके बिहारीलाल जी, रास्ते पर आ गए? जरा सी रेखा उठी थी क्रोध की भीतर, वहीं उसने चांटा मार कर निबटारा कर लिया। उसने कहा, बजाय इसके कि दूसरे चांटा मारें, खुद ही मार लेना बेहतर है। और इसके पहले कि बात आगे बढ़ जाए, उसे रोक देना उचित है।
उसने मुझे कहा था कि आग जब शुरू-शुरू में सुलगती है, जरा से पानी से बुझ जाती है। और हवा का यह नियम है कि छोटे दीए को तो बुझा देता है, बड़ी लपटों को बढ़ाता है। उस पागल ने मुझे यह कहा कि शुरू में मिटा दो तो मिट जाता है, बाद में तो मिटाने से भी लपटें बढ़ती हैं। वह लाओत्से ने भी नहीं कहा है इस सूत्र में। तुमने भी देखा होगा, हवा का झोंका आता है, छोटा दीया बुझ जाता है; और घर में आग लगी हो, उस वक्त अगर हवा चल जाए तो मारे गए, फिर बुझना मुश्किल है। लपटों को हवा भी बढ़ाती है। बढ़े हुए को सब तरफ से बढ़ने की सुविधा मिल जाती है। छोटे में मिटा दो तो हवा भी मिटाती है।
यह जो पागल आदमी था, यह पागल आदमी नहीं था, यह समझ-बूझ कर पागल हो रहा था। इसने पागलपन का एक आवरण अपने चारों तरफ खड़ा कर लिया था। यह बचाव था। पागल समझ कर लोग न उसकी तरफ ध्यान देते थे, न उसकी चिंता लेते थे। समाज में रहते हुए वह समाज से बिलकुल दूर हो गया था। उसने अपने चारों तरफ एक छोटी सी गुफा बना ली थी पागलपन की। वह पागलपन बचाव था।
समाज कितना पागल होना चाहिए, जहां कि बचाव के लिए भी आदमी को पागल होना पड़ता हो। बहुत से फकीर दुनिया में पागलपन को आरोपित कर लिए हैं, ताकि लोग उन्हें भूल जाएं, ताकि लोग उन पर ध्यान न दें, ताकि वे क्या कर रहे हैं, लोग उनको अकेला छोड़ दें, ताकि वे अपना जो करना चाहें करते रहें, कोई उनकी चिंता न ले। जब लोग एक दफा मान लेते हैं कि पागल है तो सब क्षमा कर देते हैं।
यह लाओत्से का सूत्र और तुम्हारा ठीक इससे विपरीत होना, इन दोनों को साथ-साथ समझने की कोशिश करो। जब कोई समस्या उठती है तब तुम क्या करते हो?
पहले तो तुम उस पर ध्यान ही नहीं देते। तुम ऐसा रुख रखते हो कि अपने आप चली जाएगी, कोई खास बड़ी बात नहीं है। ऐसे ही सर्दी-जुकाम है, मिट जाएगा। क्या चिकित्सक से पूछना है! क्या उपचार करना है! तुम छोटा करके देखते हो। तुम पहले तो उपेक्षा करते हो, टालते हो। तुम पहले पूरी चेष्टा यह करते हो कि अपने आप ही हल हो जाए।
कहीं दुनिया में कोई चीज अपने आप हल हुई है? उलझाओ तुम और अपने आप हल हो जाए, यह होगा कैसे? बनाओ तुम, अपने आप हल हो जाए; यह होगा कैसे? समस्या तुम खड़ी कर रहे हो; अपने आप हल न होगी। लेकिन यह मनुष्य का पहला रवैया है। सोचता है, शायद कोई चमत्कार घट जाएगा, कोई घटना बदल जाएगी, संयोग बदल जाएंगे। चीज अपने आप हो जाएगी; क्यों झंझट में पड़ना! आदमी नजरअंदाज करना चाहता है; कहीं और देखने लगता है। यह पहली प्रक्रिया है, कि तुम अपने मन को कहीं और लगाते हो, ताकि समस्या दिखाई न पड़े। और यहीं खतरा शुरू होता है। क्योंकि जिस समस्या को तुमने देखना बंद किया वह तुम्हारे अचेतन में गिरने लगती है, वह तुम्हारे अंधकार कुएं में गिरने लगती है, वह तुम्हारी जमीन के भीतर उतर जाती है, वह अंडरग्राउंड हो जाती है।
और एक बार कोई समस्या जमीन के नीचे उतर गई, अंधेरे में उतर गई, तुमने देखा नहीं, नजर न दी, ध्यान न किया, वह बीज की तरह जड़ जमा लेगी। जो समस्या सचेतन में हो, उसे हल करना आसान है। क्योंकि वहां तक तुम मालिक हो। एक बार अचेतन में उतर गई, फिर हल करना मुश्किल है। क्योंकि फिर तुम मालिक रहे ही नहीं। तुम्हारी मालकियत मन के ऊपर की सतह पर ही है। अगर मन को हम दस खंडों में बांटें तो पहले खंड में तुम्हारी मालकियत थोड़ी-बहुत चलती है; नौ खंडों में तुम्हारी मालकियत का कोई…नौ खंडों का तुमसे कोई संबंध ही नहीं रहा है। एक बार कोई समस्या अचेतन में, अनकांशस में चली गई तो बीज जमीन में चला गया। जमीन के ऊपर से झाड़-बुहार देना बड़ा आसान था; जमीन के नीचे बहुत कठिनाई है। और खोदने में डर है। क्योंकि खोदोगे एक, हजार निकल आएंगे। इसलिए कोई अचेतन को खोदता नहीं, छूता नहीं। भय लगता है। क्योंकि एक बीज नहीं दबा है, वहां तुम जन्मों-जन्मों से दबाए हुए पड़े हो। अचेतन तुम्हारा कबाड़खाना है, जिसमें तुमने सब कूड़ा-कर्कट भर दिया है। वहां जाने में भय लगता है कि वहां गए और सब चीजें एकदम से टूट पड़ीं तो क्या होगा?
इसलिए एक बार कोई चीज अचेतन में उतर गई तो तुम जटिलता में पड़ जाओगे।
पर मन पहले टालता है। जब मन टालता हो तब तुम जाग जाना। उस क्षण को खोना उचित नहीं है। हजार काम छोड़ कर पहले इसे निबटा लेना; बड़े काम छोड़ कर इस छोटे को निबटा लेना। क्योंकि जो आज छोटा है, कल बड़ा हो जाएगा। अभी हल हो सकता है, कल हल होना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि अकेली नहीं आती समस्या, अपने साथ हजार समस्याएं लाती है।
तुमने सुनी है कहावत, बीमारी अकेली नहीं आती, एक बीमारी अपने साथ हजार बीमारियां लाती है। सब के संगी-साथी हैं। समस्याओं के भी संगी-साथी हैं। अगर एक समस्या ने जड़ जमा ली तो उसी तरह की हजार समस्याएं भी तुम्हारे द्वार पर दस्तक देने लगेंगी–हमको भी जगह दो! और जब तुमने एक को जगह दी है तो तुम्हारे भीतर छिद्र हो गया। उसी छिद्र से हजार समस्याएं भीतर प्रवेश पा जाएंगी।
अगर तुमने क्रोध को जगह दी तो तुम हिंसा से कितनी देर तक दूर रह सकोगे? अगर तुमने क्रोध को जगह दी तो तुम काम से कितनी देर दूर रह सकोगे? क्योंकि वे सब जुड़े हैं। वे सब एक ही घटना के ताने-बाने हैं।
इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, अगर एक समस्या भी कोई व्यक्ति हल कर ले, उसकी सारी समस्याएं हल हो जाती हैं। क्योंकि एक समस्या को हल करने में तुम पाओगे, सभी समस्याएं समाविष्ट हैं।
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