क्या दीए की रोशनी से मिट पाएगा यह अंधेरा?
यह अंधेरा कब तक रहेगा? जब तक तुमने स्वयं को शरीर माना है, यह अंधेरा रहेगा। जब तक दीया है, तक तक अंधेरा रहेगा। ज्योति अकेली हो, फिर उसके नीचे कोई अंधेरा नहीं रहेगा। ज्योति सहारे से है। थोड़ी देर को सोचो, ज्योति, ज्योति मुक्त हो गई अकेली आकाश में, उसके चारों तरफ प्रकाश होगा।
लेकिन ज्योति दीये के सहारे है। दीया तो ज्योति नहीं है। जितनी जगह दीया घेरेगा, उतनी तो अंधेरे में रहेगी। इसलिए बड़ी विरोधाभासी घटना घटती हैं। दीया सबको प्रकाशित कर देता है और खुद अंधेरे में डूबा रह जाता है। तुम सब को देख लेते हो, बस खुद ही का दर्शन नहीं हो पाता।
तुम सबको समझ लेते हो, बस एक ही अनसमझा रह जाता है– वह तुम स्वयं हो। तुम सबकी सहायता कर देते हो, बस एक ही असहाय रह जाता है– वह भीतर। तुम चारों तरफ संपत्ति के ढेर लगा लेते हो, बस भीतर एक खालीपन, एक निर्धनता रह जाती है।
जब तक ज्योति शरीर के सहारे है, जब तक तुमने समझा है कि मैं शरीर हूं, जब तक ज्योति को यह भ्रांति है वह दीया, मिट्टी का दीया है; जब तक ज्योति ने साफ-साफ नहीं पहचान लिया कि दीया मिट्टी है और मैं मिट्टी नहीं, आत्मा अग्निधर्मा है, शरीर मिट्टी है…।
तुमने देखा, कि अग्नि का एक स्वभाव है वह सदा ऊपर की तरफ जाती है, ऊपर… ऊपर। तुम दीये को उल्टा भी कर दो, तो भी ज्योति ऊपर की तरफ जायेगी। तुम ज्योति को उल्टा न कर पाओगे।
अग्नि का स्वभाव है ऊर्ध्वगमन। इसलिए सारे ज्ञान को उपलब्ध व्यक्तियों ने आत्मा को अग्निधर्मा कहा है। इसलिए जरथुस्त्र को माननेवाले चैबीस घंटे दीये को जलाये रखते हैं मंदिर में। वह सिर्फ इस बात की खबर है कि अग्नि तुम्हारा स्वभाव है इसलिए सारी दुनिया में अग्नि की पूजा हुई। हिंदू सूर्य को नमस्कार करते हैं। वह नमस्कार सिर्फ अग्नि के ऊर्ध्वगामी स्वभाव को है।
जिस दिन महावीर को निर्वाण उपलब्ध हुआ उस दिन जैन दीपावली मनाते हैं। महा-निर्वाण हुआ उस दिन वे, उनकी ज्योति दीये से मुक्त हुई, उस दिन करोड़ों-करोड़ों दीये जलाते हैं। हिंदुओं की बजाय जैनों की दीवाली ज्यादा सार्थक है। हिंदू तो लक्ष्मी की पूजा के लिए दीवाली मनाते हैं। बड़ी उल्टी है। तुम अग्नि को भी लक्ष्मी की पूजा में लगाते हो? जो ऊर्ध्वगामी है, उसको भी अधोगामी की तरफ लगाते हो? तुम दीये भी जलाते हो तो भी संसार को प्रकाशित करने के लिए।
जैनों की दीवाली ज्यादा अर्थपूर्ण हैं। वे इसलिए मनाते हैं दीवाली, कि उस रात महावीर महानिर्वाण को उपलब्ध हुए। अमावस की रात महावीर ने ठीक रात चुनी। बुद्ध ने पूर्णिमा की रात ज्ञान उपलब्ध किया, पर महावीर ने ज्यादा ठीक रात चुनी। अमावस की अंधेरी रात! सब तरफ अंधकार है और महावीर प्रकाश हो गये। उस अंधकार में वह प्रकाश, ठीक विरोध के कारण प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़़ा। एक दीया जलाओ, तो जब पूर्णिमा की रात हो, उसका कुछ पता भी न चलेगा। अंधेरी अमावस में एक दीया जलाओ, उसकी रोशनी बड़ी प्रगाढ़ होगी।
जैनों की दीवाली ज्यादा सार्थक है, लेकिन कोई जैन उसको मनाता नहीं। सब जैन हिंदुओ की दीवाली मना रहे हैं। कब उन्होंने भी लक्ष्मी की पूजा शुरू कर दी, कहना मुश्किल है। मन तो हिंदुओं का ही है। उसमें कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। वे भी धन की ही पूजा कर रहे हैं। आदमी जैसा है, वह सभी चीजों को मिट्टी की तरफ नियोजित कर देता है। यही कारण है कि हमारी चेतना बाहर की तरफ देखती है। यह कुछ स्वाभाविक है।
—ओशो
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