शरीर सुंदर वाहन है, इसकी निंदा न करें। – ओशो
यहां बहुत सी बुनियादी बातें समझने जैसी हैं। एक, तुम तुम्हारा शरीर हो। अभी तुम सिर्फ शरीर हो, और कुछ नहीं हो। तुम्हें आत्मा वगैरह के बारे में ख्याल होंगे, लेकिन वे खयाल ही हैं। जैसे तुम अभी हो, शरीर ही हो। अपने को यह धोखा मत दो कि मैं मृत्युंजय आत्मा, अमर आत्मा हूं। इस आत्मवचना में मत रहो। यह एक खयाल भर है, और वह भी भयजनित खयाल।
आत्मा है या नहीं, तुम्हें इसका कुछ पता नहीं है। तुमने उस अंतरतम में अब तक नहीं प्रवेश किया है जहां अमृत की उपलब्धि होती है। तुमने सिर्फ आत्मा के संबंध में कुछ सुना है। और चूंकि तुम मृत्यु से डरे हुए हो इसलिए तुम इस खयाल से चिपके हुए हो। तुम जानते हो कि मृत्यु हकीकत है। और इसलिए तुम चाहते हो और मानते हो कि तुम्हारे भीतर कुछ हो जो अमृत हो। यह एक विश फुलफिलमेंट है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा नहीं है; मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो अमृत है। नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं। लेकिन जहां तक तुम्हारा सवाल है, तुम केवल देह हो और तुम्हें खयाल भर है कि आत्मा अमर है। यह खयाल सिर्फ मानसिक है और वह भी मृत्यु के भय के कारण निर्मित हुआ है। और ज्यों—ज्यों तुम कमजोर होगे, बूढ़े होगे, त्यों—त्यों अमर आत्मा और परमात्मा में तुम्हारा विश्वास बड़ा होता जाएगा। तब तुम मस्जिद, मंदिर और चर्च के चक्कर लगाने लगोगे। तुम मंदिरों—मस्जिदों में जाकर देखो, वहा तुम्हें मृत्यु की कगार पर खड़े बूढ़े—बूढ़ियां इकट्ठे मिलेंगे।
युवक बुनियादी रूप से नास्तिक होता है। ऐसा सदा रहा है। जितने तुम जवान हो उतने ही नास्तिक भी हो। जितने तुम युवा हो उतने ही अविश्वासी हो। क्यों? यह इसलिए कि तुम अभी बलवान हो। अभी तुम्हें भय बहुत कम है और मृत्यु के संबंध में तुम अभी अनजान हो। तुम्हारे लिए मृत्यु किसी सुदूर भविष्य में है; वह केवल दूसरों को घटित होती है। मृत्यु अभी तुम्हारे लिए नहीं है।
लेकिन जैसे—जैसे तुम बड़े होंगे वैसे—वैसे तुम्हें अहसास होगा कि अब मैं भी मर सकता हूं। मृत्यु करीब आती है और व्यक्ति आस्तिक होने लगता है। सभी विश्वास भय पर खड़े हैं—सभी विश्वास। और जो भय से विश्वास करता है वह अपने को सिर्फ धोखा देता है।
तुम अभी देह ही हो, यही तथ्य है। तुम्हें चिन्मय का अभी कोई पता नहीं है; तुम केवल मृण्मय को जानते हो। लेकिन चिन्मय है; तुम उसे जान भी सकते हो। विश्वास से काम नहीं चलेगा। जानना भी जरूरी है। तुम उसे जान सकते हो। खयाल किसी काम के नहीं है—जब तक कि वे ठोस अनुभव न बन जाएं। इसलिए खयालो के धोखे में मत पड़ो; खयालों और विश्वासों को अनुभव मत समझ लो।
यही कारण है कि तंत्र शरीर से शुरू करता है। शरीर तथ्य है। तुम्हें शरीर से यात्रा करनी होगी; क्योंकि तुम शरीर में हो। यह कहना भी ठीक नहीं है, मेरा यह कहना सही नहीं है कि तुम शरीर में हो। जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम शरीर ही हो, शरीर में नहीं हो। तुम्हें इस बात का कुछ पता नहीं है कि शरीर में क्या छिपा है। तुम सिर्फ शरीर को जानते हो, शरीर के पार का अनुभव तुम्हारे लिए अभी बहुत दूर का तारा है।
अगर तुम दार्शनिकों और धर्म—शास्त्रियों के पास जाओ तो तुम पाओगे कि वे सीधे आत्मा से आरंभ करते हैं। लेकिन तंत्र सर्वथा वैज्ञानिक है। वह वहां से शुरू करता है जहां तुम हो। वह वहां से शुरू नहीं करता है जहां तुम कभी हो सकते हो। जहां हो सकते हो वहां से शुरू करना मूढ़ता है, तुम वहा से शुरू नहीं कर सकते। आरंभ तो वहीं से हो सकता है तुम हो।
तंत्र शरीर की निंदा नहीं करता है; चीजें जैसी हैं, उनका सर्व—स्वीकार तंत्र है। ईसाइयत और अन्य धर्मों के पंडित—पुरोहित शरीर के प्रति निंदा से भरे हैं। वे तुम्हारे भीतर एक विभाजन पैदा करते हैं। वे कहते हैं कि तुम दो हो। वे यह भी कहते हैं कि देह दुश्मन है, कि देह पाप है, और यह कि देह से लड़ना है।
यह द्वैत, दुहरापन बुनियादी तौर से गलत है। यह द्वैत तुम्हारे चित्त को दो हिस्सों में बांट देता है, तुम्हारे भीतर विखंडित व्यक्तित्व निर्मित करता है। धर्मों ने मनुष्य के मन को खंड—खंड कर दिया है, उसे स्कीजोफ्रेनिक बना दिया है। कोई भी विभाजन तुम्हें अंदर—अंदर तोड़ देता है; तब तुम दो ही नहीं, अनेक हो जाते हो। प्रत्येक व्यक्ति अनेक खंडों की भीड़ भर है; उसमें कोई जैविक एकता नहीं है, उसमें कोई केंद्र नहीं है।
अंग्रेजी भाषा में व्यक्ति को इंडिविजुअल कहते हैं। जहां तक शब्दार्थ का संबंध है इंडिविजुअल का अर्थ है अविभाज्य। उस अर्थ में तुम अभी व्यक्ति नहीं हो, अविभाज्य नहीं हो। अभी तुम अनेक खंडों में, अनेक चीजों में बंटे हो। यही नहीं कि तुम्हारे मन और शरीर बंटे हैं, अलग—अलग हैं, तुम्हारी आत्मा और शरीर भी बंटे हैं। यह मूढ़ता इतनी गहरी चली गई है कि खुद शरीर भी दो में बंट गया है। एक शरीर का ऊपरी भाग है जिसे तुम अच्छा समझते हो और दूसरा शरीर का निचला भाग है जिसे तुम बुरा मानते हो। यह मूढ़ता है, लेकिन है। तुम खुद भी अपने शरीर के निचले हिस्से के साथ चैन नहीं अनुभव करते हो, उसके साथ एक बेचैनी सरकती रहती है। विभाजन और विभाजन, सर्वत्र विभाजन ही है।
तंत्र को सब स्वीकार है; वह सबको स्वीकार करता है। जो कुछ भी है, तंत्र उसे पूरे हृदय से स्वीकार करता है। यही कारण है कि तंत्र कामवासना को भी समग्रता से स्वीकार करता है। पांच हजार वर्षों से तंत्र ही अकेली परंपरा रही है जिसने काम को समग्रता से स्वीकार किया है। इस अर्थ में पूरे विश्व में तंत्र ऐसी अकेली परंपरा है। क्यों? क्योंकि सेक्स या काम वह बिंदु है जहां तुम हो। और कोई भी यात्रा वहीं से हो सकती है जहां तुम हो।
तुम अपने काम—केंद्र पर हो; तुम्हारी ऊर्जा काम—केंद्र पर है। और उसी बिंदु से उसे यात्रा करनी है, उसे आगे जाना है, पार जाना है। अगर तुम केंद्र को ही इनकार करते हो तो तुम सिर्फ अपने को धोखा दे सकते हो कि तुम गति कर रहे हो, लेकिन गति असंभव है। तब तुम उसी बिंदु को इनकार कर रहे हो जहां से गति संभव होती है।
इसलिए तंत्र देह को स्वीकार करता है, काम को स्वीकार करता है, सबको स्वीकार करता है। और तंत्र कहता है कि विवेक सबको स्वीकार कर उसे रूपांतरित करता है; केवल अज्ञान इनकार करना जानता है। विवेक को सब कुछ स्वीकार है; अज्ञान को सब कुछ अस्वीकार है। विवेक के हाथों में पड़कर जहर भी औषधि बन जाता है। देह उस चीज के लिए साधन बन सकती है जो देहातीत है। वैसे ही काम—ऊर्जा आध्यात्मिक शक्ति बन सकती है।
स्मरण रहे कि जब तुम पूछते हो कि तंत्र में शरीर को इतना महत्व क्यों दिया जाता है तो यह प्रश्न तुम क्यों पूछते हो? क्या कारण है?
तुम शरीर के रूप में जन्म शरीर के ही रूप में जीते हो। तुम शरीर के रूप में बीमार पडते हो, और शरीर के रूप में ही तुम्हारा इलाज होता है, तुम्हें औषधि दी जाती है, तुम्हें पूर्ण और स्वस्थ बनाया जाता है। शरीर के रूप में ही तुम युवा होते हो; शरीर के रूप में ही तुम के होते हो। और अंत में शरीर के रूप में ही तुम मर जाओगे। तुम्हारा समूचा जीवन शरीर—केंद्रित है, शरीर के चारों ओर ही घूमता रहता है। फिर तुम किसी को प्यार करोगे, उसके साथ संभोग में उतरोगे, और दूसरे शरीरों का निर्माण करोगे।
तुम सारी जिंदगी कर क्या रहे हो? अपने को बचा रहे हो। भोजन, हवा और मकान के जरिए तुम किसको सम्हाल रहे हो? शरीर को सम्हाल रहे हो, जिंदा रख रहे हो। और बच्चे पैदा करके तुम क्या करते हो? शरीर ही पैदा करते हो। सारा जीवन निन्यानबे दशमलव नौ प्रतिशत शरीर—केंद्रित है। तुम शरीर के पार जा सकते हो, लेकिन यह यात्रा शरीर से होकर और शरीर के द्वारा की जाती है। इस यात्रा में शरीर का उपयोग आवश्यक है।
लेकिन तुम यह प्रश्न क्यों पूछ रहे हो? क्योंकि शरीर तो बाहरी खोल है; गहराई में शरीर सेक्स का, काम का प्रतीक है। इसीलिए जो परंपराएं काम—विरोधी हैं वे शरीर—विरोधी भी हैं। और जो परंपराएं काम—विरोधी नहीं हैं, वे ही शरीर के प्रति मैत्रीपूर्ण हो सकती हैं।
तंत्र सर्वथा मैत्रीपूर्ण है। और तंत्र कहता है कि शरीर पवित्र है, धार्मिक है। तंत्र की दृष्टि में शरीर की निंदा अधार्मिक कृत्य है, पाप है। यह कहना कि शरीर अशुद्ध है या शरीर पाप है, तंत्र की निगाह में मूढ़ता है। तंत्र ऐसी शिक्षा को विष— भरी शिक्षा मानता है। तंत्र शरीर को स्वीकार करता है। स्वीकार ही नहीं करता, वह उसे शुद्ध, निर्दोष और पवित्र मानता है। तुम शरीर का उपयोग कर सकते हो, उसे पार जाने का माध्यम बना सकते हो। पार जाने में भी वह सहयोगी होता है।
लेकिन अगर तुम शरीर से लड़ने लगोगे तो तुम चूक गए। अगर तुम शरीर से लड़ने लगे तो तुम बीमार से भी बीमार होते जाओगे। और अगर तुम शरीर से लड़ते ही रहे तो अवसर हाथ से निकल जाएगा। लड़ना नकारात्मक है; तंत्र विधायक रूपांतरण है। शरीर से मत लड़ो; लड़ने की कोई जरूरत नहीं है।
यह ऐसे ही है कि तुम जिस कार में बैठे हो उसी कार से लड़ रहे हो। और तब कोई यात्रा नहीं हो सकती, क्योंकि तुम वाहन से लड़ रहे हो। वाहन से लड़ना नहीं है, बल्कि उसका सदुपयोग करना है। लड़ने से वाहन नष्ट होगा और यात्रा कठिन हो जाएगी।
शरीर एक सुंदर वाहन है—बहुत रहस्यपूर्ण, बहुत जटिल। इसका उपयोग करो; इससे लड़ी मत। इसके साथ सहयोग करो। जिस क्षण तुम इसके विरोध में जाते हो तुम स्वयं के विरोध में जाते हो। यह ऐसा ही है कि कोई व्यक्ति कहीं जाना चाहे और अपने पांव से लड़ने लगे, उन्हें काट फेंके।
तंत्र कहता है कि शरीर को जानो, उसके रहस्यों को समझो। तंत्र कहता है कि शरीर की ऊर्जा को जानो और जानो कि यह ऊर्जा कैसे भिन्न—भिन्न आयामों में गति करती है और रूपांतरित होती है। उदाहरण के लिए काम—ऊर्जा को लो; वह शरीर की बुनियादी ऊर्जा है। सामान्यत: हम काम—ऊर्जा का उपयोग सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिए करते हैं। एक शरीर
दूसरे शरीरों को पैदा करता है, और ऐसे सिलसिला चलता रहता है। काम—ऊर्जा का जैविक उपयोग सिर्फ बच्चे पैदा करना है। लेकिन वह अनेक उपयोगों में से एक उपयोग है और निम्नतम उपयोग है। निम्नतम कहने में कोई निंदा नहीं है; मगर निम्नतम है। वही ऊर्जा दूसरे सृजनात्मक काम भी कर सकती है।
बच्चे पैदा करना मूलभूत सृजन है—तुमने कुछ निर्मित किया। यही कारण है कि कोई स्त्री मां बनने पर एक सूक्ष्म आनंद का अनुभव करती है, उसने कुछ सृजन किया है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुष चूंकि स्त्री की भांति सृजन नहीं कर पाता है, चूंकि वह मां नहीं बन सकता है, उसे बेचैनी होती है। और इस बेचैनी पर विजय पाने के लिए वह बहुत सी चीजों का सृजन करता है। वह चित्र बनाएगा, वह कुछ करेगा जिससे कि वह सर्जक हो जाए, जिससे कि वह मां बन जाए।
यह भी एक कारण है कि क्यों स्त्रियां कम सृजनात्मक होती हैं और पुरुष अधिक सृजनात्मक होते हैं। स्त्रियों को एक स्वाभाविक आयाम उपलब्ध है जिसमें वे सहज ही सृजनात्मक हो सकती हैं, जिसमें वे मां बन सकती हैं, जिसमें वे परितृप्त हो सकती हैं। उन्हें एक गहरी तृप्ति महसूस होती है। लेकिन पुरुष को उसका अभाव है और वह अपने भीतर कहीं एक असंतुलन अनुभव करता है। इसलिए वह सृजन करना चाहता है, कोई परिपूरक सृजन। वह चित्र बनाएगा, वह गाएगा, वह नाचेगा, वह कुछ करेगा जिसमें वह भी मां बन सके।
मनोवैज्ञानिक यह बात अब कहने लगे हैं—और तंत्र सदा से कहता रहा है—कि काम—ऊर्जा सदा सारे सृजन का स्रोत है। इसीलिए ऐसा होता है कि यदि कोई चित्रकार सचमुच अपने सृजन में गहरा डूब जाए तो वह कामवासना को बिलकुल भूल सकता है। अगर कोई कवि अपनी कविता में बहुत तल्लीन हो जाए तो वह भी काम को भूल जाएगा। उसे ब्रह्मचर्य ओढ़ने की जरूरत न होगी। सिर्फ साधु—महात्माओं को, मठों में रहने वाले गैर—सृजनशील साधु—महात्माओं को ही अपने पर ब्रह्मचर्य लादने की जरूरत पड़ती है। क्योंकि अगर तुम सृजनशील हो तो जो ऊर्जा कामवासना में संलग्न थी वही सृजन में लग जाती है। तब तुम कामवासना को बिलकुल भूल सकते हो; और इस भूलने में किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं होती।
प्रयत्न करके भूलना असंभव है। किसी चीज को भूलने के लिए तुम प्रयत्न नहीं कर सकते; प्रयत्न ही तुम्हें बार—बार उसकी याद दिला देगा। वह व्यर्थ है; दरअसल वह आत्मघातक है। तुम किसी चीज को भूलने का प्रयत्न नहीं कर सकते। यही कारण है कि जो लोग अपने पर ब्रह्मचर्य लादते हैं, ब्रह्मचारी बनने को अपने को मजबूर करते हैं, वे मानसिक रूप से काम—विकृति के शिकार भर हो जाते हैं। तब कामवासना शरीर से हटकर मन में चक्कर लगाने लगती है, पूरी बात मानसिक हो जाती है। और वह बदतर है; क्योंकि तब मन बिलकुल विक्षिप्त हो जाता है।
सृजन का कोई भी काम कामवासना को विलीन करने में सहयोगी होगा। तंत्र कहता है, अगर तुम ध्यान में उतर जाओ तो कामवासना बिलकुल विलीन हो जाएगी। कामवासना बिलकुल विलीन हो सकती है, क्योंकि सारी ऊर्जा किसी ऊंचे केंद्र में समाहित हो रही है।
और तुम्हारे शरीर में कई केंद्र हैं और काम निम्नतम केंद्र है। और मनुष्य इस निम्नतम केंद्र पर जीता है। और जैसे—जैसे ऊर्जा नीचे से ऊपर की और गति करती है, वैसे—वैसे ऊपर के केंद्र खुलने—खिलने लगते हैं। वही ऊर्जा जब हृदय में पहुंचती है तो प्रेम बन जाती है। वही ऊर्जा जब और ऊंचे उठती है तो नए आयाम और अनुभव फलित होते हैं। और जब वह ऊर्जा शिखर पर पहुंचती है, तुम्हारे शरीर के अंतिम शिखर पर, तो वह वहा पहुंच जाती है जिसे तंत्र सहस्रार कहता है। वह उच्चतम चक्र है।
सेक्स या काम निम्नतम चक्र है, और सहस्रार उच्चतम। और काम—ऊर्जा इन दोनों के बीच गति करती है। काम—केंद्र से इसे मुक्त किया जा सकता है। जब वह काम—केंद्र से छूटती है तो तुम किसी को जन्म देने का कारण बनते हो। और जब वही ऊर्जा सहस्रार से मुक्त होकर ब्रह्मांड में समाती है तो तुम अपने को नया जन्म देते हो। यह भी जन्म देना है, लेकिन जैविक तल पर नहीं। तब यह आध्यात्मिक पुनर्जन्म है; तब तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ।
भारत में हम ऐसे व्यक्ति को द्विज कहते हैं; उसका दुबारा जन्म हुआ। अब उसने अपने को एक नया जन्म दिया। वही ऊर्जा ऊर्ध्वगमन कर गई। तंत्र के पास कोई निंदा नहीं है; तंत्र के पास रूपांतरण की गुह्य विधियां हैं। यही कारण है कि तंत्र शरीर की इतनी चर्चा करता है; वह जरूरी है। शरीर को समझना जरूरी है। और तुम वहीं से आरंभ कर सकते हो जहां तुम हो।
ओशो
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