हम परिस्थिति को कैसे लेते हैं – एक प्रेरक कहानी
कोरिया की एक भिक्षुणी, एक संन्यासिनी एक रात एक गाँव में भटकी हुई पहुँची। रास्ता भटक गयी थी, जिस गाँव पहुँचना चाहती थी, वहाँ न पहुँच कर दूसरे गाँव पहुँच गयी ! उसने जाकर एक द्वार पर दरवाजा खटखटाया। आधी रात है। दरवाजा खुला। लेकिन उस गाँव के लोग दूसरे धर्म को मानते थे। वह भिक्षुणी दूसरे धर्म की थी। उस दरवाजे के मालिक ने दरवाजा बन्द कर लिया और कहा : देवी! यह द्वार तुम्हारे लिए नहीं है। हम इस धर्म को नहीं मानते। तुम कहीं और खोज करो। और चलते वक्त यह भी कहा कि इस गाँव में शायद ही कोई दरवाजा तुम्हारे लिए खुले। क्योंकि इस गाँव के लोग दूसरे ही धर्म को मानते हैं, और हम तुम्हारे धर्म के शत्रु हैं।
आप तो जानते ही हैं, धर्म धर्म आपस में बड़े शत्रु हैं ! एक गाँव का अलग धर्म है, दूसरे गाँव का अलग धर्म है। एक धर्म वाले को दूसरे धर्म वाले के यहाँ कोई शरण नहीं, कोई प्रेम नहीं, कोई आशा नहीं, कोई हमदर्दी नहीं ! द्वार बन्द हो जाते हैं। द्वार बन्द हो गये उस गाँव में ! उसने दो- चार दरवाजे खटखटाये, लेकिन कोई दरवाजा नहीं खुला। सर्द रात है, वह अकेली स्त्री है, कहाँ जायेगी ? लेकिन धार्मिक लोग इस तरह की बात नहीं सोचते। धार्मिक लोगों ने ‘ मनुष्यता ‘ जैसी बात कभी सोची ही नहीं ! वे हमेशा सोचते हैं, हिन्दू है या मुसलमान। बौद्ध है, या जैन। आदमी का सीधा कोई मूल्य उनकी दृष्टि में कभी नहीं होता। उस स्त्री को गाँव छोड़ना पड़ा ! आधी रात जाकर गाँव के बाहर वो एक पेड़ के नीचे सो गयी ! कोई दो घंटे बाद ठंड के कारण उसकी नींद खुली।
उसने आँखें खोलीं। ऊपर आकाश तारों से भरा था। उस वृक्ष पर फूल खिल गये हैं। रात के खिलने वाले फूल, उनकी सुगन्ध चारों तरफ फैल गयी है। वृक्ष के फूल चटक रहे हैं। आवाज आ रही है। और फूल खिलते जा रहे हैं। वह आधी घड़ी तक मौन उस फूल को, उन वृक्ष के फूलों को देखती रही। आकाश के तारों को देखती रही। फिर दौड़ी गाँव की तरफ, जाकर फिर उसने उन दरवाजों को खटखटाया, जिन दरवाजों को उनके मालिकों ने बन्द कर लिया था। आधी रात फिर कौन आया ? उन्होंने दरवाजे खोले, वही भिक्षुणी खड़ी है! उन्होंने कहा : हमने मना कर दिया, यह द्वार तुम्हारे लिए नहीं है। फिर दोबारा क्यों आयी हो ?
लेकिन भिक्षुणी की आँखों से आँसू बहे जाते हैं। उसने कहा : नहीं! अब द्वार खुलवाने नहीं आयी, अब ठहरने नहीं आयी, केवल धन्यवाद देने आयी हूँ। काश ! तुम आज मुझे अपने घर में ठहरा लते, तो रात आकाश के तारे और फूलों का चटककर खिल जाना – मैं देखने से वंचित ही रह जाती। मैं सिर्फ धन्यवाद देने आयी हूँ कि तुम्हारी बड़ी कृपा थी कि तुमने द्वार बन्द कर लिये और मैं आकाश के नीचे सो सकी। तुम्हारी बड़ी कृपा थी कि तुमने घर की दीवालों से मुझे बचा लिया और खुले आकाश में मुझे भेज दिया। जब तुमने मुझे भेजा था, तब तो मेरे मन को लगा था कि कैसे बुरे लोग हैं। अब मैं यह कहने आयी हूँ कि कैसे भले लोग हैं इस गाँव के। मैं धन्यवाद देने आयी हूँ, परमात्मा तुम पर कृपा करे। जैसी तुमने मुझे अनुभव की रात दे दी, जो आनन्द मैंने आज जाना है, जो फूल मैंने आज खिलते देखे हैं – जैसे मेरे भीतर भी कोई प्राणों की कली चिटक गयी हो, खुल गयी हो। जैसी आज अकेली रात में मैंने आकाश के तारे देखे हैं, जैसे मेरे भीतर ही कोई आकाश स्पष्ट हो गया हो, और तारे खिल गये हों। मैं उसके लिये धन्यवाद देने आयी हूँ। भले लोग हैं तुम्हारे गाँव के।
परिस्थिति कैसी है, इस पर कुछ निर्भर नहीं करता। हम परिस्थिति को कैसे लेते हैं, सब इस पर निर्भर करता है। हर एक व्यक्ति को परिस्थिति कैसी लेनी है, यह सीख लेना चाहिए। तब तो राह पर पड़े पत्थर भी सीढियाँ बन जाते हैं। और जब हम परिस्थितियों को गलत ढँग से लेने के आदी हो जाते हैं, तो सीढ़ियाँ भी ‘ पत्थर ‘ मालूम पड़ने लगती हैं।
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