मनुष्य का पूरा जीवन एक गहन तीव्र इच्छा है – ओशो
जमीन के इंच—इंच पर और प्रकृति के इंच—इंच पर और विश्व के इंच—इंच पर बनाने वाले की छाप है। यहां एक भी चीज निष्प्रयोजन नहीं मालूम पड़ती। और प्रत्येक चीज के भीतर एक गहन अनुपात है। अगर हम इनकार करे चले जाएं, तो हम अपने ही हाथ अपने को अंधा बनाते हैं।
देखें, चारों तरफ आंखें खोलकर देखें। बीज को बोते हैं जमीन में। बीज को तोड़कर देखें, तो वृक्ष का कोई नक्श दिखाई नहीं पड़ता, कोई ज्यू—प्रिंट दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन अब वैज्ञानिक मानते हैं कि बीज में क्यू—प्रिंट है ,— नहीं तो यह वृक्ष निकलेगा कैसे? एक छोटे—से बीज में तोड़कर देखने पर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन इस बीज को जमीन में बो देते हैं और वृक्ष अंकुरित होता है; हर कोई वृक्ष नहीं, एक विशिष्ट वृक्ष अंकुरित होता है। इस वृक्ष की शाखाएं हर वृक्ष जैसी नहीं होतीं। इसकी अपने ही ढंग की शाखाएं होंगी, अपने ही ढंग के पत्ते होंगे, अपने ही ढंग के फूल खिलेंगे। और आश्चर्य की बात यह है कि जब यह वृक्ष संपूर्ण होगा, तो जिस बीज को हमने बोया था, वही बीज करोड़ों होकर वापस निकल आएगा। हर कोई बीज नहीं, वही बीज करोड़ों होकर फिर प्रकट हो जाएगा!
एक बीज के भीतर भी ब्लू—प्रिंट है। एक बीज के भीतर भी व्यवस्था है। एक बीज के भीतर भी भविष्य की पूरी रूप—रेखा है। एक मां के पेट में बच्चे ने गर्भ लिया है। वह जो पहला अणु है बच्चे का, उसके भीतर पूरा का पूरा ब्लू—प्रिंट है। उस व्यक्ति का पूरा का पूरा जीवन विकसित होगा; उस सब की कहानी छिपी है। उस सब के मूल निर्देश सूत्र छिपे हैं, सारे सुझाव छिपे हैं। और शरीर उन सारे सुझावों को मानकर चलेगा। उस व्यक्ति की आँख का रंग क्या होगा, यह उस छोटे—से अणु में छिपा है, जो खाली आंख से देखा नहीं जा सकता। उस व्यक्ति की कितनी बुद्धि होगी, कितनी मेधा होगी, कितना आई क्यू होगा, वह उस छोटे—से अण में छिपा है। जिसको बुद्धि लाख उपाय करे, तो भी पता नहीं लगा पा सकती। वह व्यक्ति कितनी उम्र का हो सकेगा, कितनी उम्र का होकर मरेगा, उस व्यक्ति को कौन—सी खास बीमारियां हो सकती हैं, वह सब उस छोटे—से बीज में छिपा है।
अगर इतने छोटे—से बीज में यह वृक्ष का सारा क्यू—प्रिंट छिपा होता है; अगर छोटे—से मनुष्य के अणु में, सेल में, उसके पूरे जीवन की कथा छिपी होती है। तो क्या यह सोचना गलत है कि इस पूरे जगत का भी कोई क्यू—प्रिंट होना चाहिए? क्या यह सोचना गलत है कि इस सारे जगत की भी मूल व्यवस्था किसी अणु में छिपी हो गुड उस अणु का नाम ही परमात्मा है। यह जो इतना बड़ा विराट जगत है, इस सारे जगत के फैलाव की भी मूल व्यवस्था कहीं होनी चाहिए।
कृष्ण कहते हैं, मैं ही इसे सृजन करता और मैं ही फिर इसे अपने में लीन कर लेता हूं।
इसे समझें। एक बीज से वृक्ष निर्मित होता है और फिर वृक्ष पुन: बीजों में लीन हो जाता है। प्रथम और अंतिम क्षण सदा एक होते हैं। जहां से यात्रा शुरू होती है, वहीं यात्रा पूर्ण हो जाती है। बीज से शुरू होती है यात्रा, बीज पर समाप्त हो जाती है।
इस सारे विराट अस्तित्व को अगर हम एक इकाई मान लें, तो इस इकाई का भी मूल कहीं छिपा होना चाहिए। लेकिन हम बीज को तोड़ते हैं, तो वृक्ष नहीं मिलता। और अगर हम आदमी के अणु को तोड़े, उसके सेल को, कोष्ठ को तोड़े, तो भी उसमें आदमी नहीं मिलता। तो एक बात साफ होती है कि बीज में वृक्ष छिपा है, लेकिन किसी अदृश्य ढंग से; किसी ऐसे ढंग से कि जब तक प्रकट न हो जाए तब तक उसका पता ही नहीं चलता।
ईश्वर का भी पता हमें तभी चलना शुरू होता है, जब किन्हीं अर्थों में वह हमारे लिए प्रकट होने लगता है। तब तक पता नहीं चलता। इसलिए सैद्धांतिक रूप से अगर भी ले कि जगत में ईश्वर है, तब भी उसका कोई प्रयोजन नहीं जब तक कि वह प्रकट न होने लगे; वह अदृश्य हमें दिखाई न पड़ने लगे। उस बीज में से वृक्ष निकलने न लगे, फूल न खिलने लगें, तब तक हमें उसका पूरा एहसास, उसकी पूरी प्रतीति नहीं ‘होती।
लेकिन यह धारणा उपयोगी है, क्योंकि यह धारणा हो, तो उस प्रतीति की तरफ चलने में आसानी हो जाती है। और हम उसी तरफ यात्रा कर पाते हैं, जिस दिशा को हम अपने संकल्प में उन्मूक्त कर लेते हैं। जिस दिशा को हम बंद कर देते हैं, उस तरफ यात्रा कठिन हो जाती है।
पश्चिम में एक विचारक अभी था, जिसका पश्चिम पर बहुत प्रभाव पड़ा, एडमंड लूसेल्ड। उसका कहना है, मनुष्य का पूरा जीवन एक इनटेशनलिटी है। मनुष्य का पूरा जीवन एक गहन तीव्र इच्छा है। तो जिस दिशा में मनुष्य अपनी गहन तीव्र इच्छा को लगा देता है, वही दिशा खुल जाती है, और जिस दिशा से अपनी इच्छा को खींच लेता है, वही बंद हो जाती है।
तो अगर एक चित्रकार चित्रकार होना चाहता है, तो अपने समस्त प्राणों की ऊर्जा को उस दिशा में संलग्न कर देता है। एक मूर्तिकार मूर्तिकार होना चाहता है, एक वैज्ञानिक वैज्ञानिक होना चाहता है। लेकिन अगर आप कुछ भी नहीं होना चाहते, तो आप ध्यान रखिए, आप कुछ भी नहीं हो पाएंगे, क्योंकि आप किसी भी यात्रा पर अपनी चेतना को संगृहीत करके गतिमान नहीं कर पाते। आपके भीतर इनटेशनलिटी, आपके भीतर संकल्प का आविर्भाव ही नहीं हो पाता। तो आप एक लोच—पोच व्यक्ति होते हैं, जिसके भीतर कोई केंद्र नहीं होता। बिना रीढ़ की, जैसे कोई शरीर हो बिना रीढ़ की हड्डी का, वैसी आपकी आत्मा होती है बिना रीढ़ की।
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