ध्यान विधि “वर्तमान में जीना”
अभी रात जब आप सोएं, तो स्मरणपूर्वक यह खयाल लेकर सोएं कि जो बीत गया, वह बीत गया और इन तीन दिनों में मैं बीते हुए को बार-बार मन पर नहीं लौटने दूंगा। इन तीन दिनों में जो सामने होगा उसको जीऊंगा और जो बीत गया उसको छोड़ दूंगा। अगर इस विचारपूर्वक स्मरण के साथ आप सोए,सुबह आप और तरह से उठेंगे, जैसा कि आप रोज उठते रहे होंगे, उससे बिलकुल भिन्न उठेंगे। क्योंकि एक मन का बहुत अदभुत नियम है, हम जिस बात को लेकर सो जाते हैं, ठीक उसी बात पर सुबह जागना होता है। उससे भिन्न बात पर कोई कभी नहीं जागता। रात जिस चिंता को लेकर आप सो गए हैं, सुबह उसी चिंता पर आप वापस जाग जाएंगे। रात भर वह चिंता आपके मस्तिष्क के द्वार पर खड़ी प्रतीक्षा करेगी, जब आप जागेंगे, वह हाजिर हो जाएगी। रात्रि का अंतिम विचार सुबह का प्रथम विचार होता है। और आज रात्रि का अंतिम विचार भी यही हो कि मैं जो पीछे है उसे छोड़ता हूं। कम से कम तीन दिन के लिए मैं जो सतत वर्तमान है उसमें जीऊंगा, अतीत को बीच में नहीं लाऊंगा।
जो व्यक्ति अतीत को बीच में नहीं लाता चित्त के, उसका चित्त बहुत निर्मल और शांत हो जाता है। क्योंकि अशांति सब अतीत से आती है। तो वर्तमान में कोई भी अशांति नहीं होती। इस तत्व पर अभी हम और विचार करेंगे, तो समझ में आएगा कि तुम्हें कुछ थोड़े से सुझाव आपको दे रहा हूं। वर्तमान में वह जो प्रज्वलित मूवमेंट है, उसमें कोई अशांति नहीं होती। सब अशांति अतीत से संबंधित होती है या भविष्य से संबंधित होती है, वर्तमान में कभी कोई अशांत नहीं होता। आप खुद ही अपनी अशांति को देखेंगे, तो समझ जाएंगे। या तो वह बीती हुई होगी या आने वाली होगी। ठीक क्षण में मौजूद कोई अशांति नहीं होती।
अभी हम यहां बैठे हैं, अगर हमारा चित्त इसी क्षण में मौजूद हो जाए, कौन सी अशांति है? अगर हम इसी क्षण में जाग जाएं, कौन सी अशांति है? अगर किसी जादू से आपका सब अतीत पोंछ दिया जाए, तो कौन सी अशांति है?
जीवंत क्षण में कोई अशांति नहीं होती है। पिछला भार, अतीत का भार चित्त को अशांति देता है। और आने वाले दिन की कल्पना और योजना चित्त को अशांति देती है।
यहां तीन दिनों में, समझ लीजिए, न तो कोई अतीत है और न कोई भविष्य है। तीन दिन में बस ये तीन दिन के क्षण हैं, जो सामने क्षण आता है, वही है। इन तीन दिनों में इस भांति जीकर देखिए, एक बिलकुल नई दृष्टि जीवन के प्रति खुल जा सकती है। और एक बार यह खयाल में आ जाए कि जीवन पर जो भार है, जो टेंशन है, जो तनाव है, वह अतीत और भविष्य का है, तो मनुष्य को एक बिलकुल नया द्वार मिल जाता है खटखटाने का। और तब फिर वह रोज घड़ी दो घड़ी को सारे अतीत और सारे भविष्य से मुक्त हो सकता है। और खयाल रखिए, न तो अतीत की कोई सत्ता है, सिवाय स्मृति के और न भविष्य की कोई सत्ता है, सिवाय कल्पना के, जो है वह वर्तमान है। इसलिए कि किसी भी दिन परमात्मा को या सत्य को जानना हो, तो वर्तमान के सिवाय और कोई द्वार नहीं है। अतीत है नहीं, जा चुका; भविष्य है नहीं, अभी आया नहीं है,जो है एग्झिसटेंसियली, जिसकी सत्ता है, वह है वर्तमान। इसी क्षण में सामने मौजूद क्षण है वही। इस मौजूद क्षण में अगर मैं पूरी तरह मौजूद हो सकूं, तो शायद सत्ता में मेरा प्रवेश हो जाए। तो शायद जो सामने दरख्त खड़ा है, ऊपर तारे हैं, आकाश है, चारों तरफ लोग हैं, इन सबके प्राणों से मेरा संबंध हो जाए। उसी संबंध में मैं जानूंगा उसको भी जो मेरे भीतर है और उसको भी जो मेरे बाहर है।
इन तीन दिनों में अगर हमने थोड़ा सा भी समझपूर्वक जीने की कोशिश की–तो क्षण-क्षण में जीने की कोशिश करेंगे, यह मेरा पहला निवेदन है। जब भोजन कर रहे हों, तो सिर्फ भोजन करें। भोजन के पहले की बात भूल जाएं और साथ में भोजन करें। और सारा चित्त और सारे प्राण भोजन करने में ही तल्लीन हो जाएं। वे यहां-वहां डूबते हुए न हों। अभी तो यह होता है कि हम जब भोजन करते हैं, तब चित्त कहीं और होता है–घर में होता है, दुकान में होता है। जब दुकान में होते हैं, तब वह भोजन कर रहा होता है। जब बाजार में होते हैं, तब चित्त घर होता है, जब घर में होते हैं, तब बाजार में होता है। मतलब यह कि जहां हम होते हैं, वहां हम नहीं होते हैं। तो जीवन में एक विशृंखलता और एक खंडित, और यह खंडित स्थिति बड़ी खतरनाक है। कि जब हम सोते हैं तब चित्त दिन में जो उसने किया उसका स्मरण करता है, सपने देखता है। जो हम दिन में काम करते हैं, तो रात जो सपने अधूरे हैं, चित्त उन सपनों को पूरा करता है। चित्त पूरे वक्त अनुपस्थित है, एब्सेंट है जहां हम हैं, तो हमारा जीवन से संबंध कैसे होगा?
जब हम किसी को प्रेम कर रहे हैं, तब चित्त हमारा कहीं और है, तो जीवन में प्रेम कैसे होगा? और इसीलिए हम जीवन भर अनुभव करते हैं कि हम प्रेम चाहते हैं कि करें और हम चाहते हैं कि कोई हमें प्रेम दे, लेकिन न तो हम प्रेम कर पाते हैं और न कोई हमें प्रेम दे पाता है। प्रेम के लिए जरूरी है कि हम वर्तमान में हों। लेकिन जब हम प्रेम करते हैं तब चित्त कहीं और होता है। और जहां चित्त प्रेम करते वक्त होता है, जब हम वहां आ गए, तो चित्त वहां होता है जहां उसे प्रेम करते वक्त होना चाहिए था। ऐसे जीवन में सारी चीजें टूट गई हैं। हम कहीं हैं, चित्त कहीं है। जब हम प्रार्थना करते हैं, तब चित्त कहीं और है; जब हम व्यवसाय करते हैं, तब चित्त कहीं और है। हम किसी काम में भी ठीक-ठीक मौजूद नहीं हैं।
इन तीन दिनों में एक छोटा सा प्रयोग करें–कि जो भी काम कर रहे हैं उसमें पूरी तरह मौजूद हो जाएं। अभी रात को यहां से जाकर सोएं, तो पूरी तरह सोएं। पूरी तरह सोने का मतलब यह है कि सोते वक्त इस भांति सोएं कि सारा काम समाप्त हुआ। अब सिवाय सोने के और कोई भी काम नहीं है। अब मैं अपने पूरे प्राणों से सोने जा रहा हूं। और मेरे पूरे प्राण सिर्फ सोने भर के काम को करें और कोई भी काम नहीं है। उसी भांति सोएं। सुबह स्नान करें तो इस भांति स्नान करें कि स्नान करते वक्त आपका पूरा व्यक्तित्व स्नान कर रहा है, आपका चित्त कहीं और नहीं भागा जा रहा है। थोड़े ही दिन स्मरणपूर्वक अगर हम चित्त के साथ सजगता बरतें, तो बहुत कठिन नहीं है कि एक दिन वह घड़ी आ जाए कि हम जो काम कर रहे हों, उसमें हम पूरी तरह मौजूद हो जाएं। बुहारी लगा रहे हों, तो पूरी तरह मौजूद हो जाएं। और अगर बुहारी लगाते हुए भी कोई पूरी तरह मौजूद हो जाए, तो उसे बुहारी लगाने में वही आनंद उपलब्ध होगा, जो किसी बड़े से बड़े योगी को ध्यान करने में उपलब्ध हुआ है। कोई फर्क नहीं रह जाएगा। ध्यान का एक ही अर्थ है कि हम जो कर रहे हैं, उसमें हमारा चित्त पूरी तरह मौजूद है, पूरी तरह लीन है, उससे बाहर नहीं है। कोई भी छोटा काम।
अभी यहां से उठ कर आप कमरे की तरफ जाएंगे, तो चलेंगे रास्ते पर, तो इस भांति चलें कि चलने के सिवाय और कोई क्रिया आपके चित्त में नहीं हो रही, बस सिर्फ चल रहे हैं, चलना ही रह जाए और आप मिट जाएं। अगर चलना ही रह जाए और आप मिट जाएं, तो आपके कमरे तक जो सौ कदम उठाए जाएंगे, वे सौ कदम परमात्मा के निकट ले जाएंगे। और उन सौ कदमों में ही आपको पता चलेगा कि चित्त तो अपूर्व रूप से शांत हो गया है।
जीवन में चौबीस घंटे जो भी हम कर रहे हैं, उसके साथ इतनी आत्मलीनता, इतना आत्मसात हो जाना जरूरी है कि हम मिट जाएं और वही रह जाए जो हम कर रहे हैं। चाहे वह काम कितना ही छोटा क्यों न हो, बड़ा क्यों न हो। जो भी काम हो, उसमें हम डूब सकें पूरे। यह डूबना इन तीन दिनों में एक छोटा सा प्रयोग करें। और मैं कह रहा हूं, चौबीस घंटे जो भी आप कर रहे हैं उसमें उसका ध्यान रखें। इन तीन दिनों में ही एक बुनियादी फर्क अनुभव होगा। एक बात खयाल में आएगी।
आज रात सोने से ही शुरू कर दें। वह अभी दूर है, जब यहां से उठ कर जाएं, तभी शुरू कर दें। वह भी थोड़ा दूर है, अभी मुझे सुन रहे हैं, सुनने में ही शुरू कर दें। सुनते वक्त सिर्फ सुनने की क्रिया रह जाए, आप जिसे सिर्फ सुन रहे हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। मात्र सुन रहे हैं, कान ही कान रह गए हैं और आप नहीं हैं। जैसे आप सिर्फ कान ही हैं जो सुन रहे हैं, आंख ही हैं जो सिर्फ देख रही हैं। अगर इस सुनने की क्रिया को भी इतनी शांति से और इतनी लीनता से सुनें, तो कुछ और सुनाई पड़ेगा। तब शायद वही सुनाई पड़ जाए जो मैं आपसे कह रहा हूं। लेकिन अगर इतनी लीनता नहीं है सुनते वक्त, तो आप वह नहीं सुनेंगे जो मैं कह रहा हूं, आप वही सुनेंगे जो आप सुनना चाहते हैं, सुन सकते हैं, पहले से सुने हुए हैं, पहले से सोचे हुए हैं। तब आप वही सुनेंगे, तब फिर वह नहीं सुन पाएंगे जो मैं आपसे कह रहा हूं। तो यहीं से शुरू कर दें और इन तीन दिनों एक छोटे सूत्र पर काम करें कि जो भी काम कर रहे हैं–उठ रहे हैं; बैठ रहे हैं; सो रहे हैं, उसमें पूरी तरह लीन हो जाएं।
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