आदमी बीज की भांति पेैदा होता है – ओशो
मनुष्य के संबंध में एक बात समझ लेनी जरूरी है: और सारे पशु पूरे के पूरे पैदा होते हैं, आदमी बीज की भांति पैदा होता है, पूरा का पूरा पैदा नहीं होता। यह आदमी की गरिमा भी है और उसके जीवन की महा चिंता भी। क्योंकि अगर श्रम न किया तो बीज बीज ही रह जाएगा और सड़ जाएगा। जीवन यूं ही हाथ से वह जाएगा।
आदमी को श्रम करना होगा। तो उसका बीज अंकुरित होगा। तो उसका बीज वृक्ष बनेगा। तो वृक्ष में फूल आएंगे, फल लगेंगे। तो जीवन में गंध, सुरभि फैलेगी। तो जीवन में रस होगा; अर्थ होगा, महिमा होगी, परमात्मा होगा; ज्ञान होगा।
कुत्ता कुत्ते की तरह पैदा होता है और कुत्ते की तरह ही मरेगा। ऊंट ऊंट की तरह पैदा होगा, ऊंट की तरह मरेगा। कुत्ता कुत्ता होने से नीचे नहीं गिर सकता। और न कुत्ता कुत्ता होने से ऊपर उठ सकता है। आदमी का खतरा यही–और सौभाग्य भी यही, ध्यान रखना, दोनों बातें साथ-साथ हैं। खतरा यह है कि आदमी आदमी से भी नीचे गिर सकता है। गिरता है। आदमी ऐसे कृत्य कर सकता है कि पशुओं को भी शर्म आ जाए। चंगेजखान, और तैमूरलंग और नादिरशाह और एडोल्फ हिटलर और जोसेफ स्टेलिन, इनकी हत्याओं का, इनकी नृशंस कठोरताओं का, इनकी क्रूरताओं का कौन पशु मुकाबला कर सकेगा? सारे पशु फीके पड़ जाएंगे। इनको पशु कहना ठीक नहीं है, पशुओं का अपमान होता है।
हम इस तरह के लोगों को कहते हैं: पाशविक। उचित नहीं है कहना। अगर पशु से तुम्हारा अर्थ जानवर है तो तुम जानवरों का अपमान कर रहे हो। क्योंकि किसी जानवर ने जोसेफ स्टेलिन की तरह लाखों लोगों की हत्या नहीं की।
पशु शब्द बना है पाश से। पाश का अर्थ होता है: बंधन। जो बंधा है, वह पशु है। जो पाश में पड़ा है, वह पशु है। वासनाओं से जो जकड़ा हुआ है, वह पशु है। लेकिन कोई पशु आदमी जैसा वासनाओं में जकड़ा हुआ नहीं है।
तो आदमी तो पशुओं से बहुत नीचे गिर जाता है। पशुओं में तो एक तरह का निर्दोष भाव दिखायी पड़ेगा। उनकी आंखों में झांको तो एक तरह की सात्विकता, एक तरह का संतत्व। माना कि पशु भूखे होंगे हो हत्या करेंगे, लेकिन हत्या के लिए कोई पशु हत्या नहीं करता, सिर्फ आदमी को छोड़कर। आदमी आखेट के लिए जाता है, शिकार के लिए जाता है। मारता है खेल में। जैसे किसी का जीवन तुम्हारे लिए खेज है, किसी की हत्या तुम्हारे लिए खेल है। कोई पशु आखेट नहीं करता। कोई पशु युद्ध नहीं करता ऐसे जैसे आदमी करता है, जिसमें करोड़ों लोग मरते हैं। हिरोशिमा और नागासाकी किसी पशु के कृत्य नहीं हैं, आदमी के कृत्य हैं। एक क्षण में लाखों लोग राख हो गये।
आदमी गिरे तो बहुत बुरी तरह गिरता है। गिरे तो नर्क को छू लेता है। मगर उठे तो चांदत्तारों के पार निकल जाता है। उठे तो बुद्ध, उठे तो महावीर, उठे तो कृष्ण, उठे तो क्राइस्ट, उठे जो जरथुस्त्र। उठे तो सारे सूरज फीके हैं। उठे तो सारे फूल बासे। उठे तो उसके सौंदर्य की कोई तुलना नहीं। उसकी गरिमा का कोई मुकाबला नहीं है, अद्वितीय है फिर। उठे तो देवताओं को पीछे छोड़ देता है। इसलिए हमारे पास बड़ी मीठी कथाएं हैं।
जब बुद्ध को परम ज्ञान हुआ तो आकाश से देवता उतरे उनके चरणों में सिर झुकाने। इंद्र ने आकर बुद्ध के चरणों में सिर रखा और कहा कि हमें उपदेश दें, क्योंकि सदियों-सदियों में कभी कोई बुद्ध होता है। हम माना कि देवता हैं मगर हम भी वासनाओं में पड़े हैं। माना कि हम आदमियों से बेहतर दुनिया में हैं, ज्यादा सुखी हैं, ज्यादा संपन्न हैं, मगर चुक जाएगा हमारा पुण्य, जल्दी ही हमारा स्वर्ग समाप्त हो जाएगा, फिर हमें वापिस धरती पर लौट आना होगा। और आपने अब ऐसी संपदा पा ली जो कभी नहीं चुकेगी। तो कुछ दान हमें, कुछ इशारा हमें, कुछ बोध हमें भी, हम भी जागना चाहते हैं। नर्क में भी लोग सोए हैं, स्वर्ग में भी लोग सोए हैं। नर्क में समझो कि कांटों पर सोए हैं, स्वर्ग में समझो कि फूलों पर सोए हैं, मगर सोए दोनों तरफ हैं। जागे कोई भी नहीं हैं।
महावीर को जब ज्ञान हुआ, जब ज्योति जली, तो देवताओं ने फूल बरसाए। ये कथाएं प्यारी हैं। इन कथाओं के इतिहास मत समझना, जैसे ही तुमने इन्हें इतिहास समझा कि चूक हो जाती है, ये कथाएं पुराण हैं। पुराण का अर्थ होता है: इतिहास से बहुत बहुमूल्य है। इतिहास तो साधारण घटनाओं का जोड़ है। पुराण साधारण घटनाओं संबंधित नहीं है। पुराण तो उन अभूतपूर्व अनुभूतियों से संबंधित है जिनका कहने का कोई उपाय नहीं, इसलिए कथाओं के माध्यम से कहना होता है। पुराण में बोध कथाएं हैं, इतिवृत्त नहीं, इतिहास नहीं; शाश्वतता का, परम सत्य का चित्रण है। लेकिन जब हम परम सत्य का चित्र बनाने चलते हैं तो रंग तो हमें पृथ्वी के ही उपयोग में लाने पड़ते हैं, शब्द तो हमें आदमी के ही उपयोग में लाने पड़ते हैं।
तो कथाएं कहती है कि महावीर के भीतर ज्योतिशिखा जली, देवताओं ने फूल बरसाए। झर-झर फूल गिरे। अहोभाग्य अस्तित्व का कि फिर एक व्यक्ति के जीवन में ज्योति जगी।
आदमी उठे तो देवता भी उससे ईष्या खाते हैं। और आदमी गिरे तो पशु भी शर्मिन्दा हो जाएं। आदमी एक सीढ़ी है, एक सोपान है। नीचे उतरो तो भी वही सोपान काम आता है, ऊपर चढ़ो तो भी वही सोपान काम आता है। वही सीढ़ियां दोनों तरफ काम आ जाती हैं। जिन सीढ़ियों से तुम अपने मकान के नीचे उतरते हो, उन्हीं सीढ़ियों से मकान ऊपर चढ़ते हो–सीढ़ियां अलग नहीं होतीं।
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