तंत्र का मूल आधार
बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है। बुद्ध को जिस रात संबोधि लगी, समाधि लगी, उस रात छः वर्ष तक अथक मेहनत करने के बाद उन्होंने सब मेहनत छोड़ दी थी। छः वर्ष तक उन्होंने बड़ी तपश्चर्या की, बड़ा योग साधा। शरीर को गला डाला, हड्डी-हड्डी रह गए। कहते हैं पेट पीठ से लग गया, चमड़ी सूख गयी, सारा जीवन-रस सूख गया; सिर्फ आंखें रह गई थीं। बुद्ध ने कहा है कि मेरी आंखें ऐसी रह गयी थीं, जैसे गरमी के दिनों में किसी गहरे कुएं में तुम देखो, थोड़ा-सा जल रह जाता है, गहरे अंधेरे में, ऐसे मेरी आंखें हो गयी थीं गङ्ढों में। ज़रा-सी चमक रह गयी थी। बस अब गया तब गया जैसी हालत थी। उस दिन स्नान करके निरंजना नदी से बाहर निकलते थे, इतने कमजोर हो गए थे कि निकल न सके। एक वृक्ष की जड़ पकड़ कर अपने को रोका, नहीं तो निरंजना उनको बहा ले जाए। उस जड़ से लटके हुए उन्हें खयाल आया कि यह मैं क्या कर रहा हूं; यह मैंने शरीर गला लिया; यह सब तरह का योग करके मैंने अपने को नष्ट कर लिया। मेरी हालत यह हो गई है कि यह छोटी-सी क्षीण धारा निरंजना की, यह मैं पार नहीं कर सकता और भवसागर पार करने की सोच रहा हूं!
इससे उन्हें बड़ा बोध हुआ। बिजली कौंध गई। उन्होंने कहा : यह मैंने क्या कर लिया! यह तो मेरी आत्मघात की प्रक्रिया हो गयी। मैं निरंजना नदी पार करने में असमर्थ हो गया, तो यह भवसागर मैं कैसे पार करूंगा! यह तो मुझसे कुछ गलती हो गयी।
उस सांझ उन्होंने सब छोड़ दिया। घर तो पहले ही छोड़ चुके थे, संसार पहले ही छोड़ चुके थे, राज-पाट सब पहले ही छोड़ चुके थे–उस संध्या उन्होंने त्याग, योग सब छोड़ दिया। भोग पहले छूट गया था, आज त्याग भी छोड़ दिया। उनके पांच शिष्य थे, वे पांचों उनको छोड़कर चले गए–जब गुरु ने त्याग छोड़ दिया। और एक स्त्री जिसके कुल का, वंश का कुछ पता नहीं और पूरी संभावना है कि वह अछूत रही होगी, क्योंकि उसका नाम था : सुजाता।
अकसर ऐसा होता है कि अगर किसी स्त्री का नाम सुंदरबाई हो तो इतनी बात समझ लेना कि वह सुंदर न होगी–वे नाम से धोखा दे रहे हैं; जो असलियत में नहीं है अब नाम लगाकर धोखा दे रहे हैं। सुजाता का अर्थ है : ठीक घर में पैदा हुई। ठीक घर में पैदा होती तो यह नाम दिया ही नहीं जाता। वह तो अछूत घर में पैदा हुई होगी। कुछ पक्का नहीं है, लेकिन नाम से लगता है कि अछूत घर में पैदा हुई होगी।
तुमने देखा है न कि आंख के अंधे नाम “नयनसुख’। “सुजाता’ से लगता है कि कहीं दंश रहा होगा मन में बाप के, कि मेरी बेटी अच्छे कुल में पैदा नहीं हुई, तो नाम से पूर्ति कर ली होगी।
शिष्यों ने छोड़ दिया बुद्ध को। उन्होंने कहा : एक तो त्याग छोड़ दिया और इस न मालूम अजान कुल-कन्या से, किस कुल से आयी, कहां से आयी, कौन है . . .। उस सुजाता ने मनौती मनायी थी कि पूर्णिमा की रात फलां-फलां वृक्ष को–जहां वह सोचती थी देवता का वास है, गांव के लोग सोचते थे–खीर चढ़ाएगी। जब वह वहां पहुंची तो उसने बुद्ध को वहां बैठे देखा। उसने तो समझा कि वृक्ष का देवता प्रकट हुआ है। उसने खीर बुद्ध को चढ़ा दी। वह तो बड़ी धन्यभागी समझी अपने को। उसने तो वृक्ष के देवता को खीर चढ़ायी, लेकिन बुद्ध तो सब त्यागकर चुके थे तो उन्होंने खीर स्वीकार कर ली। और कोई दिन होता तो वे स्वीकार भी न करते। शिष्य उन्हें छोड़कर चले गए। उन्होंने कहा : यह गौतम भ्रष्ट हो गया। उस रात बड़े निश्चिंत सोए। बुद्ध पहली दफा निश्चिंत सोए। न संसार बचा न मोक्ष बचा। कुछ पाना ही नहीं था तो अब चिंता क्या थी! चिंता तो पाने से पैदा होती है। जब पाना हो तो चिंता पैदा होती है।
तुमने देखा न, कभी रात अगर पाने का कुछ खयाल पकड़ा रहे मन में, कि एक मकान खरीदना है, कि एक नया धंधा करना है, कि यह करना है, कि लॉटरी का नंबर कल खुलनेवाला है–कुछ मन में लगा रहे, दौड़ बनी रहे, तो चिंता होती है।
उस रात कोई चिंता नहीं रही। मोक्ष की भी चिंता नहीं रही। बात ही छोड़ दी। बुद्ध ने कहा : यह सब फिजूल है। न यहां कुछ पाने को है, न वहां कुछ पाने को है। पाने को कुछ है ही नहीं। मैं नाहक ही दौड़ में परेशान हो रहा हूं। अब मैं चुपचाप सब यात्रा छोड़ देता हूं। निश्चिंत सोए। उस रात उन्होंने अपने जीवन को जीवन की धारा के साथ समर्पित कर दिया। धारा के साथ बहे; जैसे कोई आदमी तैरे न, और नदी में हाथ-पैर छोड़ दे और नदी बहा ले चले। खूब गहरी नींद थी। सुबह आंख खुली और पाया कि समाधिस्थ हो गए।
लेकिन तब जो घटना मैं तुमसे कहना चाहता हूं, वह घटी। रात वह जो सुजाता, मिट्टी के पात्र में . . . गरीब घर की लड़की रही होगी। मिट्टी के पात्रों में गरीब घर के लोग ही खाना खाते हैं। वह मिट्टी के पात्र में खीर छोड़ गयी थी। वह पात्र पड़ा था। बड़ी मीठी कथा है। बुद्ध ने वह पात्र उठाया। वह निरंजना में गए नदी के किनारे। उन्होंने कहा, कि अगर यह सच है, जैसा मुझे लगता है कि समाधि फलित हो गयी है, पहली दफा मुझे ज्ञान हुआ है, मैं अपूर्व ज्योति से भरा हूं, मेरे सब दुःख मिट गए, मुझे कोई चिंता नहीं रही, मुझे कोई तनाव नहीं रहा, मैं ही नहीं रहा, मैं समाप्त हो गया हूं, मुझे तो पक्का अनुभव हो रहा है कि मैंने पा लिया, जो पाने योग्य है मिल गया! यह करोड़ों-करोड़ों वर्षों में मिलनेवाली समाधि मेरी खिल गई। मगर मैं सबूत चाहता हूं। मैं अस्तित्व से सबूत चाहता हूं कि ऐसा मुझे लग रहा है कि मिल गई, लेकिन प्रमाण क्या है! अस्तित्व से क्या प्रमाण है?
तो उन्होंने वह पात्र निरंजना में छोड़ा, और कहा : यह पात्र अगर नीचे की तरफ न जाकर नदी में ऊपर की तरफ बहने लगे, तो मैं मान लूंगा कि मुझे हो गया। और बुद्ध ने देखा और नदी के किनारे जो मछुए मछली मार रहे थे, उन्होंने चौंककर देखा, वह पात्र नदी के ऊपर की तरफ बहने लगा! तेजी से बहने लगा! और जल्दी ही आंखों से ओझल हो गया।
यह कहानी बड़ी मीठी है और बड़ी प्रतीकात्मक है और बड़ी अर्थपूर्ण है। रात बुद्ध ने अपने को छोड़ दिया नदी की धारा में बहने को। जब पूरा छोड़ दिया नदी की धारा में बहने को, तो दूसरे दिन नदी ने भी प्रमाण दिया कि अब तुम ऊपर की धारा में भी जा सकते हो। तुम तो क्या, तुम्हारे हाथ से छोड़ा हुआ पात्र भी ऊर्ध्वगामी हो जाएगा।
यह तंत्र है। यह तंत्र का मूल आधार है। तुम उतर जाओ संसार में–पूरे भाव से, समग्र भाव से, सब छोड़कर। झगड़ा नहीं, झंझट नहीं, कलह नहीं–सिर्फ होश रखते हुए जीवन में उतर जाओ। और तुम अचानक एक दिन पाओगे कि तुमने तो नीचे जाने के लिए समर्पण किया था, तुम ऊपर जाने लगे। न केवल तुम, तुम्हारे हाथ के छोड़े हुए पात्र भी जीवन की धारा में ऊपर की तरफ यात्रा करने लगेंगे।
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