रोने- रोने में फर्क है। दर्द – दर्द में भेद है
लोग समझने लगे कि परमात्मा की तरफ जाने का मतलब बड़े उदास होकर जाना, मुर्दा होकर जाना, लाश की तरह जाना।
रोने- रोने में फर्क है। दर्द – दर्द में भेद है। एक तो रोना है जो दु:ख से निकलता है, विषाद निकलता है। और एक रोना है जो आह्नाद से भी निकलता है। लेकिन तुमने एक ही रोना जाना है- – दु:ख का। कोई मर गया है, तब तुम रोएं हो। घर में बच्चा पैदा हुआ, तब तुम रोए हो? अगर तुम घर में बच्चा पैदा हुआ तब रोएं हो, तो तुम मेरी बात समझ सकोगे। और जो घर में बच्चा पैदा होता है तब रोता है, उसे वह दूसरी कला भी आ जाती है कि कोई मरे तो वह हंस भी सकता है।
मृत्यु यहां हंसने की बात है, क्योंकि मरता कोई कभी नहीं। मृत्यु से ज्यादा झूठी कोई बात नहीं। जन्म यहां रोने की बात है। फिर जीवन उतरा। फिर सुबह हुई। लेकिन रोने में आह्नाद है, उत्सव है।
तुम कभी आनंद के आंसू रोए हो? तो फिर मेरी बात तुम्हें समझ में आ जाएगी। तुम्हारा प्रेमी तुम्हें मिला है और आंखें झर – झर रो उठीं, जैसे सावन में बादल बरसे हों। अगर वैज्ञानिक के पास दु:ख के आंसू और सुख के आंसू ले जाओगे तो उसके रासायनिक विश्लेषण में तो एक ही तरह के होंगे, कुछ भेद न पड़ेगा। दोनों में नमक होगा और बराबर मात्रा में होगा। और दोनों में पानी होगा और बराबर मात्रा में होगा। और सब दूसरे तत्व भी बराबर मात्रा में होंगे। वैज्ञानिक भेद न बता सकेगा कि कौन- सा आंसू सुख में गिरा और कौन- सा दु:ख में गिरा। यही तो बात है समझने की कि कुछ ऐसा भी है जिसको विज्ञान नहीं तौल पाता। कुछ ऐसा भी है जो विज्ञान के तराजू के पार है। कुछ ऐसा भी है जो विज्ञान के विश्लेषण की पकड़ में नहीं आता।
और तुम अनुभव से जानते हो कि कभी तुम प्रेम में भी रोए हो, कभी तुम क्रोध में भी रोए हो। और कभी तुम आनंद में भी रोए हो। और कभी तुम दु:ख में भी रोए हो। और दोनों तरह के रोने में भेद है। एक में गीत होता है, एक में सिर्फ हताशा होती है। एक नाचता हुआ होता है। एक में पक्षाघात होता है, जैसे पैरालिसिस लग गई।
मेरा जोर-गाने पर है, क्योंकि मैं जानता हूं : नाचने-गाने में दुःख अपने से आ जाएगा, मगर वह नाचता-गाता हुआ होगा; मरघट का नहीं होगा, मंदिर का होगा। और आंसू भी अपने-आप सम्मिलित हो जाएंगे, मगर वे आंसू गीत की ही तरन्नुम होंगे, गीत की ही लयबद्धता होंगे, गीत का ही छंद होंगे। वे गीत को ही ताल देंगे, गीत के विपरीत नहीं होंगे। इसलिए मैंने तुम से नहीं कहा कि रोते हुए जाओ, क्योंकि मैं जानता हूं : रोना तुम्हें पता है एक तरह का और तुम उसी को न समझ लो! उसी को बहुत लोग समझकर बैठ गए हैं। जाओ, मंदिर-मस्जिदों में बैठे लोगों को देखो। बैठे हैं, उदास, जड़, लाश की तरह। सब सूख गया है, मरुस्थल हो गया है।
नहीं; यह जीवन जीने का सही ढंग नहीं। यह तो आत्महत्या है- – धीमी- धीमी आत्महत्या है। मैं आत्महत्या का विरोधी हूं।
ओशो
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