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बिल्ली भर मत पालना – एक अनोखी कथा

जीवन एक संगीत - हिंदी कहानी

एक व्यक्ति मरने के करीब था। उसने अपने शिष्य से कहा कि देख, बिल्ली भर मत पालना। मरते वक्त! शिष्य ने पूछा, गुरुदेव, इस सूत्र का अर्थ भी समझा जाइए!

किससे पूछूंगा? वेद के ज्ञाता हैं, उपनिषद के ज्ञाता हैं, गीता के ज्ञाता हैं। लेकिन यह, बिल्ली मत पालना, यह कौन सा अध्यात्म? लोग हंसेंगे अगर मैं किसी से पूछूंगा। इसका अर्थ बता जाइए जाने के पहले जल्दी से।

गुरु ने कहा, अब तू पूछता है तो बताए देते हैं। मेरे गुरु जब मरे थे तो मुझे यही कह गए थे कि बिल्ली मत पालना। लेकिन मैंने उनसे अर्थ नहीं पूछा। तू ज्यादा होशियार है, तू अर्थ पूछ रहा है। और मैंने उनकी बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया, मैंने समझा सठिया गए हैं। बूढ़े हो गए थे काफी। ब्रह्मज्ञान की चर्चा करते-करते, यह भी कोई बात है–बिल्ली मत पालना!

लेकिन तूने पूछा तो ठीक किया, मैं तुझे अपनी कहानी कह दूं। गुरु तो कह गए थे कि बिल्ली मत पालना, मैंने कुछ ध्यान दिया नहीं, मैं तो हंसा। मैंने कहा, हो गए बिलकुल…दिमाग से गए, काम से गए, इनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई। यह कोई बात है! आई-गई हो गई। मैंने बात विस्मरण कर दी।

फिर मैं जंगल में ध्यान करने लगा, तपश्चर्या करने लगा। लेकिन रोज मुझे गांव भिक्षा मांगने जाना पड़ता। और जब मैं गांव जाता तो चूहे मेरी लंगोटी कुतर जाते। जब तक मैं रहता तो लंगोटी पर नजर रखता, डंडा लिए बैठा रहता। लेकिन आखिर भीख मांगने मुझे जाना ही पड़ता गांव और चूहे कुतर जाते। या रात कभी मैं सोता तो चूहे कुतर जाते। मैंने गांव के लोगों से पूछा कि इन चूहों का क्या करें?

उन्होंने कहा, इसमें क्या है! एक बिल्ली पाल लो।
मैं अभागा कि मुझे तब भी याद न आई कि मेरा गुरु मुझसे कह गया है कि बिल्ली भर मत पालना। मैंने गांव वाले मूढ़ों की बात मान ली। गुरु को तो मैंने समझा सठिया गए हैं और गांव वालों को समझा कि समझदार हैं, सयाने हैं। बात तो सीधी है, एक बिल्ली पाल लो। बात खतम, बिल्ली चूहे खा जाएगी। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। सो मैं एक बिल्ली पाल लिया।

बिल्ली चूहे तो खा गई, लेकिन एक झंझट, अब बिल्ली के लिए मुझे दूध मांगने जाना पड़ता। क्योंकि बिल्ली को कुछ खाने को तो चाहिए, नहीं तो बिल्ली मर जाए। बिल्ली मरे, चूहे फिर आ जाएं।

गांव के लोग भी थक गए। उन्होंने कहा कि महाराज, एक काम करो, हम आपको एक गाय ही भेंट दिए देते हैं। आप वहीं गाय रख लो, आप भी पीओ दूध, बिल्ली भी पीए दूध। यह रोज-रोज दूध मांगते फिरना और भिक्षा!
बात जंची, गाय पाल ली। मगर गाय के लिए घास लेने फिर गांव वालों के सामने…।

गांव वालों ने कहा कि महाराज, आप पीछा ही नहीं छोड़ते। अब आप घास के लिए आने लगे! अरे इतनी जमीन पड़ी है जंगल में, हम साफ-सुथरी कर देते हैं। थोड़े में गेहूं बो दो, थोड़े में घास ऊगने दो। गाय के काम आ जाएगी घास, तुम्हारे काम आ जाएंगे गेहूं। आने की जरूरत न रहेगी।

बात जंची। फिर भी याद न आई कि बूढ़ा गुरु कह गया था कि बिल्ली मत पालना। अब तो बात बिल्ली से बहुत आगे भी निकल चुकी थी। सो गांव वालों ने जमीन साफ कर दी, कुछ में घास उगवा दिया, कुछ में गेहूं डलवा दिए, कुछ में चावल, दालें।

मगर यह फैलाव बड़ा हो गया, अकेले से सम्हले नहीं। पानी भी सींचना है, रखवाली भी करनी है, जानवरों से भी बचाना है। गांव वालों से कहा कि भइया, एक बहुत झंझट बढ़ा दी। अब तपश्चर्या, ध्यान इत्यादि का मौका ही नहीं मिलता। चौबीस घंटे ये खेत के पीछे लग जाते हैं।

गांव वालों ने कहा, ऐसा करो, एक विधवा है गांव में…
देखते हो बिल्ली कहां तक पहुंची! चीजें ऐसे चलती हैं, बिल्ली से विधवा हो गई।

बड़ी साध्वी है, सच्चरित्र है। अकेली है, उसका कोई है भी नहीं। शरीर से भी मजबूत है। आप विधवा को वहीं अपने आश्रम पर रख लो। वह खेती-बाड़ी भी जानती है, आप जानते भी नहीं खेती-बाड़ी, वह खेती-बाड़ी भी कर देगी, आपकी भी सेवा कर देगी, सुख-दुख में काम पड़ेगी, भोजन भी बना देगी, गाय की भी फिक्र कर लेगी।

किसान की बेटी है। और आप अपनी तपश्चर्या इत्यादि जो करना है सो करना, वह सब सम्हाल लेगी।
यह बात जंची। और फिर जो होना था सो हुआ। फिर विधवा से धीरे-धीरे प्रेम हो गया। विधवा पैर भी दबाए, रोटी भी खिलाए, स्नान भी करवाए।

स्वभावतः, प्रेम हो गया। फिर बच्चे हुए। जो होना था सो हुआ! बिल्ली कहां तक पहुंची! फिर बच्चों के विवाह करने पड़े। बात बढ़ती ही गई, बढ़ती ही गई, बढ़ती ही गई। इस दुनिया में बात कोई रुकती ही नहीं, बढ़ती ही चली जाती है। फिर बात में से बात, बात में से बात।

तो उस मरते हुए गुरु ने कहा कि देख, तुझे मैं समझाए जाता हूं। यह मत समझना कि मैं सठिया गया हूं। बिल्ली भर मत पालना। यह भूल मैंने की, जिंदगी गई यह। अगली जिंदगी खयाल रखूंगा कि बिल्ली नहीं पालनी।

मन साथ होगा तो बिल्ली नहीं पालोगे तो कुत्ता पालोगे। इससे क्या फर्क पड़ने वाला है कि क्या पालोगे? कुछ पालोगे। मन होगा, खेती न करोगे तो दुकान करोगे; फिर चाहे वह दुकान पूजा की ही क्यों न हो, यज्ञ-हवन की ही क्यों न हो। मन कुछ न कुछ करवाएगा। मन बिना कर्ता हुए नहीं रह सकता है। मन के प्राण ही उसके कर्ता होने में हैं।

इसलिए पलटू ठीक कहते हैं:
पलटू मन मूआ नहीं, चले जगत को त्याग।
ऊपर धोए क्या भया, भीतर रहिगा दाग।।

ऊपर-ऊपर धोते रहोगे, तुम्हारा त्याग सब ऊपर-ऊपर रहेगा और भीतर तो दाग बना ही हुआ है। दाग यानी मन। मन को धोना है। मन को ऐसा धोना है कि बह ही जाए।

लेकिन यह भूल हुई है। और अब भी जारी है। और लगता नहीं कि आगे भी रुकेगी। लोग मन से तो मुक्त होते नहीं और संसार से भाग खड़े होते हैं।

 

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