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सब खेल उसका, सब द्वंद्व उसके, सारी लीला उसकी।

जीवन एक संगीत - हिंदी कहानी

osho story

मैंने सुना है, एक पत्थरों की ढेरी लगी थी एक राजमहल के पास, एक बच्चा खेलता हुआ निकला, उसने एक पत्थर उठाकर राजमहल की खिड़की की तरफ फेंका।

फेंका तो बच्चे ने था, लेकिन पत्थर का भी अहंकार होता है। पत्थर जब ढेरी से ऊपर उठने लगा तो उसने आसपास पड़े हुए पत्थरों से कहा—मित्रों, मैं जरा यात्रा को जा रहा हूं। नीचे पड़े पत्थर ईर्ष्या से दबे रह गये।

तड़पे, हिले—डुले, मगर हिल—डुल भी न सके। सोचा, यह विशिष्ट पत्थर है—अवतारी, असाधारण, हम तो उड़ ही नहीं सकते। उड़ने की आकांक्षा किस में नहीं होती?

पत्थर भी आकाश में उड़ना चाहते हैं। वे भी चांद—तारों से बात करना चाहते हैं। वे भी सूरज की यात्रा पर निकलना चाहते हैं। पंख की आकांक्षा किसको नहीं होती?

तुम भी सपने देखते हो रात तब पंख उग आते हैं और आकाश में उड़ते हो। पत्थर भी सपने देखते हैं। उड़ने का मजा ऐसा है! उड़ने की मुक्ति ऐसी है! खुले आकाश का आनंद ऐसा है! उड़ना यानी स्वतंत्रता। कोई बंधन नहीं, सारा आकाश तुम्हारा है। कशमशाए, दुखी हुए, ईर्ष्या से जले, पड़े रह गये।

पत्थर तो उठा, जाकर महल की खिड़की से टकराया, कांच चकनाचूर हो गया। अब जब पत्थर कांच से टकराता है तो काच चकनाचूर हो जाता है। पत्थर चकनाचूर करता नहीं है, करना नहीं पड़ता पत्थर को कुछ। यह दोनों का स्वभाव ऐसा है कि पत्थर के टकराने से काच चकनाचूर हो जाता है इसमें पत्थर का कोई कृत्य नहीं है।

लेकिन पत्थर हंसा और उसने कहा—मैंने लाख बार कहा है, मेरे रास्ते में कोई भी न आए। जो आएगा, चकनाचूर हो जाएगा।

यही तुमने किया है। सोचना, यही तुमने कहा है। ऐसे ही तुम भी जिए हो। यह संयोग ही है, इसमें कुछ गौरव नहीं है पत्थर का—पत्थर पत्थर है, कांच कांच है, बस इतनी बात है। कांच कोमल है, पत्थर कठोर है, इतनी बात है। न पत्थर के किये कुछ हो रहा है, न कांच के किये कुछ हो रहा है, स्वभावगत सब हो रहा है।

कांच तो छितरकर टूट गया, पत्थर जाकर महल के भीतर कालीन पर गिरा। बहुमूल्य ईरानी कालीन! मालूम पत्थर ने कहा? पत्थर ने कहा—यात्री की, लंबी यात्रा की, थक भी गया, थोड़ा विश्राम करूं।

गिरा है, लेकिन कहता है—विश्राम करूं! नौकरी से तुम निकाले भी जाते हो तो तुम कहते हों—इस्तीफा दे दिया है। चुनाव हार जाते हो, तुम कहते हों—राजनीति का त्याग कर दिया, संन्यास ले लिया।

महल के द्वार पर खड़े नौकर ने आवाज सुनी, कांच के टूटने की, पत्थर के गिरने की, वह भागा, भीतर आया।

उसने पत्थर को हाथ में उठाया—फेंकने के लिए—लेकिन पत्थर ने कहा कि बड़े भले लोग हैं, मेरे स्वागत में न केवल कालीन बिछा रखे थे, बल्कि सेवक भी लगा रखे हैं। नौकर ने पत्थर को उठाकर वापिस खिड़की से नीचे फेंक दिया।

मालूम है पत्थर ने क्या कहां? पत्थर ने कहा—बहुत दिन हो गये घर छोड़े, मित्रों की याद भी बहुत आती है, अब वापिस चलूं! और जब पत्थर वापिस गिर रहा था अपनी ढेरी पर, तो उसने कहा—मित्रो, तुम्हारी बड़ी याद आती थी।

ऐसे तो महलों में निवास किया, राजाओं के हाथों में उठा, सम्राटों से मुलाकात हुई, मगर फिर भी अपना घर, अपने लोग, अपना देश—मातृभूमि—बड़ी याद आती थी, मैं वापिस आ गया। उस सब को छोड़—छाड़ दिया।

ऐसी जिंदगी है तुम्हारी। कौन हाथ तुम्हें जिंदगी में फेंक देता है, तुम्हें पता नहीं। क्यों तुम एक दिन जन्म जाते हो, तुम्हें पता नहीं। कौन तुम्हें जन्मा देता है, तुम्हें पता नहीं।

क्यों कुछ पता नहीं। मगर तुम कहते हो—मेरा जीवन, मेरा जन्म! जैसे तुम्हारा इसमें कुछ हाथ हो। जैसे तुमने निर्णय लिया हो! जैसे तुमसे पूछ कर किया गया हो। जैसे तुम्हें पता हो।

फिर कौन तुम्हारे भीतर आकांक्षाएं जगाता है, कौन वासनाएं जगाता है, तुम्हें कुछ पता नहीं। लेकिन तुम कहते हों—मैं यह करके रहूंगा। मुझे संगीतज्ञ बनना है; मैं दुनिया को दिखाकर रहूंगा कि मुझे संगीतज्ञ बनना है।

किसने तुम्हारे भीतर आकांक्षा उठायी है संगीतज्ञ बनने की? तुमने? तुम्हारे बस के बाहर है। उठी है, तुमने उठते पाया है इस वासना को। कि तुमने पाया कि बड़ा धन कमाऊंगा, कि एक सुंदर स्त्री पानी है, कि एक सुंदर पुरुष पाना है, मगर ये सारी आकांक्षाएं तुम्हारे भीतर उठी हैं।

इन्हें तुमने उठाया नहीं है, तुम इनके मालिक नहीं हो। ये किस गहराई से आती हैं, तुम्हें कुछ पता नहीं। यह कौन धागे खींच रहा है, तुम्हें कुछ पता नहीं; कौन तुम्हें लड़ा रहा है जीवन के संघर्ष में, कौन तुम्हें विजय की आकांक्षा से भर रहा है, कौन तुम्हें महत्वाकांक्षा दे रहा है, तुम्हें कुछ पता नहीं।

यह खेल जो तुम खेल रहे हो, तुम्हारा लिखा हुआ नहीं है। यह पार्ट जो तुम अदा कर रहे हो, यह तुम्हारा लिखा हुआ नहीं है। यह तुम जो हो रहे हो, यह तुम्हारी ही बात नहीं है, कोई बड़ा राज पीछे छुपा है, जो बिलकुल अज्ञात है, अंधेरे में पड़ा है।

भक्त इस बात को ठीक से देखता है, समझता है। इस समझ से ही अर्पण पैदा होता है। इस समझ में ही अर्पण घट जाता है। उसे दिखायी पड़ जाता है कि मैं हूं ही कहां!

न— मालूम कौन अज्ञात ले आया है, न—मालूम कौन अज्ञात श्वास ले रहा है, न— मालूम कौन अज्ञात एक दिन उठा ले जाएगा—जैसा आया था वैसे चला जाऊंगा—न—मालूम कौन अज्ञात न—मालूम किन—किन यात्राओं पर भेज रहा है; जब तक भेज रहा है, जा रहा हूं। जिस दिन रोक लगा, रुक जाऊंगा; न संसार मेरा है, न संन्यास मेरा है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं कि संन्यास लेने की आकांक्षा हो रही है, ले लें, या न लें? मैं उनसे कहता हूं—तुम्हारे हाथ में है? तो तुम समझे ही नहीं संन्यास का अर्थ। तुम निर्णायक बनोगे तो संन्यास चूक गया।

कौन अज्ञात तुम्हारे भीतर यह आकांक्षा उठा रहा है कि अब संन्यास ले? छोड़ दो उसके हाथों में, लेने दो उसे संन्यास तुम्हारे द्वारा—वही संन्यास लेता है तुम्हारे द्वारा, वही संन्यास छोड़ संसार में जाता है तुम्हारा द्वारा। सब खेल उसका, सब द्वंद्व उसके, सारी लीला उसकी।

ओशो…

 

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