जीवन स्थिर नहीं है – ओशो
आपकी दृष्टि हमेशा बदलती रहती है, स्थिर नहीं है। तो आज इस क्षण में, महावीर और कृष्ण, मोहम्मद और क्राइस्ट इनके बारे में आपके क्या विचार हैं, क्या दृष्टि हैं?
जीवन स्थिर नहीं है। अस्तित्व में सिर्फ एक चीज है जो कभी परिवर्तित नहीं होता, और वह है: परिवर्तन। मैं कोई पत्थर नहीं हूं। मैं गतिमान हूं, मैं बदलता हूं—ये जीवंतता के लक्षण हैं। लेकिन मैं हमेशा श्रेष्ठतर के लिए बदलता हूं।
मैं बुद्ध, महावीर, कृष्ण, इन लोगों से प्रेम करता हूं। लेकिन मेरा प्रेम अंधा नहीं है। मैं भी देख सकता हूं कि इन लोगों ने चेतना के उत्तुंग शिखर छुए हैं। लेकिन इन लोगों ने बहुत गंभीर गलतियां भी की हैं। और जब छोड़ा आदमी एक गलती करता है तो वह गलती भी छोटी होती है। और जब महावीर, बुद्ध और कृष्ण की ऊंचाई के लोग गलतियां करते हैं, तो वह गलती भी उस व्यक्ति जितनी ही बड़ी होती है।
मैं उनसे प्रेम करता हूं क्योंकि उन्होंने बहुत महान प्रयास किया, बहुत भारी प्रयास किया, अचेतन के अंधकार से बाहर आने का—प्रकाश की ओर जाने का। लेकिन उस मार्ग में उन्होंने कुछ गलतियां भी कीं। और मुश्किल यह है कि उनके पीछे चलने वाले ये लाखों लोग, उनकी चेतना की ऊंचाई तक तो नहीं पहुंच सकते, लेकिन उनकी गलतियों के शिकार आसानी से हो सकते हैं। क्योंकि गिरना सरल है, चढ़ना बहुत मुश्किल है। यह किसी दुर्गम पर्वतारोहण की तरह है। लोग सोचते हैं कि आदमी या तो अच्छा है या बुरा। लोग हमेशा यह या यह की भाषा में सोचते हैं।
यह ठीक नहीं है। एक बुरे आदमी में कुछ महान और सुंदर बात हो सकती है। और एक अच्छे आदमी में कोई कुरूप और निंदनीय बात हो सकती है। लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
तो पहले तो बात स्पष्ट हो जाए कि मैं यह या वह की भाषा में नहीं सोचा। मैं समग्र व्यक्ति को देखता हूं। उसमें जो अच्छा है, उसकी मैं प्रशंसा करता हूं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि उसकी बुराई के प्रति मैं अंधा हो जाता है।
कृष्ण का उदाहरण लें। पृथ्वी ने आज तक जितने लोग पैदा किए हैं, उनमें वे सबसे प्यारे व्यक्ति हैं। वे अकेले व्यक्ति हैं जिनका धर्म संगीत, नृत्य और प्रेम से भरपूर है। मैं इस बात का प्रशंसक हूं। लेकिन वे भारत के सबसे बड़े युद्ध—महाभारत—के कारण भी बने। इससे मैं राजी नहीं हो सकता। और कभी—कभी तो महात्मा आंधी जैसे लोग भी बिलकुल अंधे हो सकते हैं। तुम इसे देख सकते हो, यह इतना स्पष्ट है।
महात्मा गांधी अहिंसा की शिक्षा देते हैं और गीता को अपनी माता कहते हैं। और गीता एकमात्र शास्त्र है, जो हिंसा सिखाता है। और गांधी को उनके पूरे जीवन में किसी ने नहीं कहा कि बात बिलकुल असंगत है। यदि तुम कृष्ण के साथ हो, तो तुम अहिंसा के प्रवर्तक नहीं हो सकते।
वस्तुतः अर्जुन अहिंसा होने की कोशिश कर रहा था। वह युद्ध भूमि छोड़ देना चाहता था यह देखकर कि लाखों लोग मारे जाएंगे। और इन लाखों लोगों की कब्रों पर यदि मैं स्वर्ण सिंहासन पर भी विराजमान हो जाऊं, तो उसमें कौन सा आनंद होगा? वह एक कब्रिस्तान होगा उससे तो बेहतर होगा कि मैं हिमालय चला जाऊं, ध्यान करूं और असली स्वर्ण सिंहासन पा लूं, तो लोगों की हत्या पर निर्भर नहीं करता।
गीता में, कृष्ण से कहीं अर्जुन ज्यादा धार्मिक प्रतीत होता है। वह तो कृष्ण ही है, जो उसे फुसलाए जाते हैं, उसे लड़ने के लिए प्रेरित करने के तर्क दिए जाते हैं। पूरी गीता और कुछ नहीं है सिवाय इसके कि अर्जुन युद्ध से प्रेरित करने के तर्क दिए जाते हैं। पूरी गीता और कुछ नहीं है सिवाय इसके कि अर्जुन युद्ध से बचने की कोशिश करता है और कृष्ण हर तरह से उसे लड़ने के लिए राजी करते हैं। और अंततः जब वह बौद्धिक रूप से अर्जुन को मना नहीं सके तब वे अतार्किक ढंग से कोशिश करते है कि यह परमात्मा की इच्छा है। क्योंकि परमात्मा की इच्छा के बिना पता भी नहीं हिलता। तो तुम इस जिम्मेदारी को इतनी गंभीरता से मत लो। परमात्मा चाहता है कि युद्ध हो। यह उसका निर्णय है।
अगर मैं अर्जुन की जगह होता तो मैं तत्क्षण छोड़ देता और कृष्ण से कहा कि मुझे परमात्मा कह रहा है कि युद्ध करना छोड़ दो; यह उसका निर्णय है। और मैं आपकी क्यों सुनूं? आप कोई परमात्मा के और मेरे बीच मध्यस्थ नहीं है। मुझे कोई मध्यस्थ नहीं चाहिए। मुझे लड़ना नहीं है। आप सिर्फ सारथी हैं। परमात्मा मुझसे भी बोल रहा है।
और मैं तुमसे कहता हूं, अर्जुन जो कह रहा था वह कृष्ण के वक्तव्य से, परमात्मा के अधिक करीब था। लेकिन कृष्ण ज्यादा तार्किक थे, ज्यादा बौद्धिक थे। और अर्जुन उनका सम्मान करता था। और जब उन्होंने कहा, यह परमात्मा की इच्छा है, उसको समर्पण करो, तो उस बेचारे ने समर्पण कर दिया। और करोड़ों लोग मारे गए।
और महाभारत के युद्ध के बाद भारत ने अपनी सारी गरिमा खो दी। इसकी पूरी जिम्मेदारी कृष्ण की है। भारत की रीढ़ ही टूट गई। वह बौनों का देश हो गया। और महाभारत का अनुभव इतना भीषण था कि उसकी प्रतिक्रिया के बतौर, अन्यथा भारत एक था, उसकी प्रतिक्रिया के रूप में, जैन और बौद्ध धर्म पैदा हुए, जिन्होंने अहिंसा की शिक्षा दी। क्योंकि हिंसा हमने देख ली थी। उसने सारे देश को, उसकी गरिमा को नष्ट कर दिया। स्वभावतः मन घड़ी के पेंडुलम की तरह एक अति से दूसरी अति पर घूमता है।
मैं कोई अतिवादी नहीं हूं। मैं गौतम बुद्ध की प्रशंसा करता हूं, महावीर का प्रशंसा करा हूं, लेकिन उनकी अतियों का प्रशंसक नहीं हूं। क्योंकि पहले कृष्ण ने देश को विनाश की आंधी में ढकेला, फिर उन लोगों ने अहिंसा के नाम पर एक तरह की नपुंसकता पैदा की। दो हजार साल तक तुम गुलाम बने रहे। कौन जिम्मेदार है? तना विशाल देश—छोटी छोटी जातियां आई और तुम पर शासन किया! क्योंकि अहिंसा तुम्हारा अभीप्सित लक्ष्य बन गया। प्रज्ञावान पुरुष मध्य में ठहरता है। वह किसी की हिंसा नहीं करता, लेकिन किसी को स्वयं की हिंसा भी नहीं करने देता। क्योंकि दोनों हालत में वह हिंसा को सहारा दे रहा है।
इस घटना के फल स्वरूप सिक्ख धर्म पैदा हो गया, जो ठीक मध्य में। केवल हिंसा को या अहिंसा को आदर्श मानकर ऊंचा उठाने का कोई सवाल ही नहीं था। लेकिन उसने मनुष्य को एक अंतदृष्टि दी विध्वंसक होना बुरा है; जीवन को नष्ट करना बुरा है। लेकिन दूसरे को तुम्हें नष्ट करने देना भी उतना ही बुरा है। तो दूसरों के साथ हिंसक मत होओ, लेकिन अगर कोई तुम्हारे साथ हिंसक हो रहा है तो तुम्हारी तलवार तैयार रहे। उसे साथ रखे रहो। सिक्ख धर्म ने इस बात की फिकर की कि जो पांच चीजें सिक्ख धर्म की आधारभूत साधन हैं, उनमें तलवार एक रहे। यह तलवार किसी को काटने के लिए नहीं है बल्कि लोगों को इस बात की चेतावनी देने के लिए हैं, कि हम घास पात नहीं हैं, कि तुम हमें काटते जाओ और हम कुछ न कहेंगे।
मैं महावीर का प्रशंसक हूं। आत्मा की खोज में उनकी बराबरी का आदमी खोजना मुश्किल है… असीम शक्तिशाली व्यक्ति थे। लेकिन फिर वे दूसरी अति पर चले गए। अपरिग्रह अच्छी बात है, क्योंकि तुम्हारा सब संग्रह अंततः तुम्हारी चिंता का कारण बन जाता है। और उसका कोई अंत नहीं है। तुम इकट्ठा किए जाते हो, और मन अधिक और अधिक की मांग करता रहता है।
महावीर राजकुमार थे। उनका राज्यारोहण होने वाला था। उत्तराधिकारी बनने वाले थे। उन्होंने राज्य दौड़ दिया। मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन चीजों को अति पर मत ले जाओ। अगर तुम कोई चिंता या तनाव नहीं चाहते हो, तो राज्य त्याग बिलकुल उचित है। और राज्य का अनुशासन निरंतर चिंता, तनाव और पीड़ा का कारण बनता है। तुम्हें शांति और मौन की खोज है, और तुम अपनी समस्त ऊर्जा आंतरिक विकास में लगाना चाहते हो, यह बात समझ में आती है। लेकिन उसके लिए नग्न रहना… मैं इसका पक्ष नहीं ले सकता।
कपड़े कोई इतनी चिंता का कारण नहीं हैं। मैं कपड़ों का उपयोग करता रहा हूं और मुझे उससे कोई अड़चन नहीं आई। तो मैं नहीं सोचता, तुम भी कपड़ों का उपयोग करते आए हो, लेकिन मैं नहीं सोचता कि तुम्हारी आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालते हैं। उल्टे, ठंड में तुम कपड़े न पहनो तो उससे तुम्हारी साधना में रुकावट आ सकती है क्योंकि तुम्हारे भीतर तनाव पैदा होगा।
लेकिन महावीर इतनी अति पर चले गए कि वे कोई उपकरण काम में नहीं लाएंगे। यहां तक की अपनी दाढ़ी या बाल बनाने के लिए उस्तरे का उपयोग भी नहीं करेंगे। अब उस्तरा कोई अणु बम तो नहीं है। उन्होंने आपने बाल उखाड़ने शुरू किए। अब यह मूढ़ता है। और मैं यह सैद्धांतिक रूप से कहना चाहता हूं कि प्रतिभाशाली व्यक्ति में भी ऐसा अंश हो सकता है, जो मूढ़तापूर्ण है। प्रति वर्ष वे अपने बाल हाथ से उखाड़ेंगे क्योंकि वे किसी उपकरण का उपयोग नहीं कर सकते। और मुझे उसमें कोई आध्यात्मिक नहीं दिखाई देती।
जब भी मैं कोई ऐसी बात देखता हूं जो चेतना कि विकास में सहयोगी हो, तो मैं उसके पक्ष में होता हूं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह मोहम्मद से आती है या मोजेस से, या महावीर से। आदमी गौण है, चेतना का विकास महत्वपूर्ण है। लेकिन एक संतुलन होना चाहिए। अन्यथा पेंडुलम स्वाभाविक रूप से दूसरी अति पर जाता है।
मोहम्मद ने अपने धर्म को नाम दिया इस्लाम। इस्लाम शानी शांति। और दुनिया में इस्लाम ने जितना उपद्रव पैदा किया है, उतना किसी धर्म ने नहीं किया। निश्चित ही, मोहम्मद उसके लिए जिम्मेदारी होंगे। उन्होंने अपनी तलवार पर लिख रखा था, शांति मेरा संदेश है—यह कोई तलवार पर लिखने की बात नहीं है। क्योंकि तलवार शांति का संदेश नहीं है। ज्यादा से ज्यादा वह सुरक्षा बन सकती है, लेकिन संदेश नहीं बन सकती। वे आदमी बड़े प्यारे थे। बहुत व्यावहारिक और प्रयोगत्मक थे। और अगर देशों में उन्होंने देखा कि वहां निरंतर युद्ध चलते थे और वे स्वयं सतत युद्ध में उलझे रहते थे, तो पुरुष मारे जाते थे, और पुरुषों और स्त्रियों का अनुपात बड़ा विचित्र हो गया था।
प्रकृति एक संतुलन बनाए रखती है। प्रकृति में स्त्रियों की और पुरुषों की संख्या करीब—करीब समान होती है। यह इस बात का निदर्शक है कि प्रकृति एक प्रतीक है। तुम बच्चों की जन्म दर की चांज करो तो तुम्हें आश्चर्य होगा। 110 लड़के पैदा होते हैं और 100 लड़कियां पैदा होती हैं। तुम कहोगे, यह बात जरा अजीब मालूम पड़ती है। शायद तुम सोचोगे कि पुरुष श्रेष्ठ है इसलिए 110 लड़के पैदा होते हैं और स्त्री कनिष्ठ है इसलिए 100 लड़कियां पैदा होती हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। तथ्य तो इससे बिलकुल उल्टा है। पुरुष कमजोर होते है और स्त्री ताकतवर होती है—मांसपोशियों की दृष्टि से नहीं कह रहा हूं। तो जब तक ये लड़के विवाह की उम्र के योग्य बनते हैं तब तक ये लड़के विवाह की उम्र के योग्य बनते हैं तब तक वे अतिरिक्त 10 लड़के मर चुके होते हैं। लेकिन 100 लड़कियां अभी भी जिंदा होती हैं। तो विवाह के समय ठीक 100 लड़के और 100 लड़कियां होती हैं।
प्रकृति की अपनी प्रज्ञा है। स्त्रियां पुरुषों से पांच साल अधिक जाती हैं। लेकिन पुरुष का अहंकार बड़ी विचित्र है। कोई पुरुष अपने से पांच साल बड़ी स्त्री से विवाह करने को राजी नहीं होता। हर देश में लोग चाहते हैं कि लड़कियां लड़कों से कुछ साल छोटी हों। अगर लड़का 25 साल का है तो लड़की 20 की होनी चाहिए। पर यह पूर्णतः प्रकृति के खिलाफ हैं। 5 साल लड़की ज्यादा जीने वाली है लड़के से। तो जब लड़का 75 साल का होगा तब वह मरेगा, और उसकी पत्नी सिर्फ 70 साल की होगी। और वह व्यर्थ ही बुढ़ापे के दस साल पीड़ा और एकाकीपन से भरे हुए बिताएगी।
अपने से चौदह साल बड़ी स्त्री से शादी करके मोहम्मद ने बहुत हिम्मत का काम किया। बात थोड़ी विचित्र लगती है लेकिन प्रकृति से अधिक मेल खाती है। और चूंकि स्त्रियां चार गुना ज्यादा थी, परिस्थिति बहुत खतरनाक थी। अगर प्रत्येक पुरुष एक ही स्त्री से शादी करता तो बाकी जो 3 स्त्रियां बचतीं, उनका क्या होता? वे वेश्या बनेंगी। क्योंकि तुमने उन्हें कोई और शिक्षा नहीं दी है। तुमने उन्हें कोई आर्थिक स्थिरता नहीं दी है। तो मोहम्मद ने यह तय किया कि हर पुरुष 4 या 5 स्त्रियों से शादी कर सकता है। यह बड़ी सुंदर व्यवस्था थी। उन्होंने खुद नौ स्त्रियों से शादी की। लेकिन उससे उनके अनुयायियों को जैसे अनुज्ञा मिल गई। हैदराबाद के निजाम की पांच सौ पत्नियां थी। क्योंकि चार या चार से ज्यादा…फिर उसकी कोई सीमा नहीं है।
मोहम्मद पढ़े लिखे नहीं थे। उनके पास यह समझ नहीं थी कि वे जो कर रहे हैं, उसकी गलत ढंग से व्याख्या की जा सकती है। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि उनके अनुयायी पांच सौ औरतों से शादी करने लगेंगे। और अब जब अनुपात बराबर हैं, स्त्रियों और पुरुषों की संख्या समान है, इसलिए मोहम्मद के खयाल का निषेध होना चाहिए और उसे स्वीकृति किया जाना चाहिए। वह उस समय, चौदह सौ साल पहले ठीक था, लेकिन आज नहीं।
ये सारे महापुरुष, जो इस पृथ्वी पर हुए, उनके प्रति मेरा दृष्टिकोण इतना ही है: उनमें हमारे लिए जो संगत है उसे चुनें और असंगत है उसे छोड़ दें।
इस्लाम धर्म उस दंश में पैदा हुआ था जो ज्यादा सुसंस्कृत नहीं था। उसे सिर्फ एक ही तर्क मालूम था—तलवार का तर्क। और तलवार कोई तर्क नहीं है। और इस्लाम धर्म ठीक उसी बिंदु पर अटका रह गया है, जहां मोहम्मद छोड़ गए थे। क्योंकि कहा है, और मैं उसका निषेध करता हूं, कि मैं अल्लाह का आखिरी पैगंबर हूं; कि अल्लाह के पूर्ववर्ती संदेशों में कुरान अंतिम सुधार है। अब इसके बाद कोई और पैगंबर नहीं होगा और अन्य कोई परिवर्तन नहीं होंगे।
अब यह धर्मांधता है। और यह किसने कहा है कि इसको कोई सवाल नहीं है—बात ही गलत है। जीवन विकसित होता रहेगा और लोगों को नए संदेशों की जरूरत पड़ेगी और नए लोगों की जरूरत पड़ेगी जो नई समस्याओं का हल खोजेंगे। और कुरान कोई बहुत बड़ा धर्म ग्रंथ नहीं है। उसमें उपनिषद की वह उड़ान नहीं है। उसमें गौतम बुद्ध की विचार संपदा नहीं है। लेकिन यह स्वाभाविक भी था क्योंकि मोहम्मद अशिक्षित लोगों से बोल रहे थे। लेकिन वे अशिक्षित लोग अब भी वही ढोए चले जा रहे हैं। एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कुरान। या तो कुरान को स्वीकार करो या तलवार को।
भारत में जो मुस्लिम रहते हैं, जिन मुस्लिम लोगों ने पाकिस्तान निर्मित किया है, उन्हें बौद्धिक रूप से यह बात स्वीकृत नहीं है कि वे जिस धर्म को छोड़ रहे हैं, उससे इस्लाम धर्म कोई अधिक श्रेष्ठ धर्म है। उनसे जबरदस्ती की जा रही है। और कम से कम धर्म के मामले में जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती है, नहीं होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपना दर्शन अभिव्यक्त करने की छूट होनी चाहिए। और प्रत्येक व्यक्ति को उसे स्वीकार या अस्वीकार करने की छूट होनी चाहिए। उसका अस्वीकार करना उसका अपमान नहीं है। धर्म केवल स्वतंत्रता की आबोहवा में विकसित होता है। इस्लाम ने खुद मुस्लिमों को भी यह स्वतंत्रता नहीं दी है।
मेरी बातों से लोग पशो पेश में पड़ जाते हैं क्योंकि मैंने जो कल कहा था वह मैं शायद आज नहीं कहूंगा। और जो मैं आज कह रहा हूं शायद वह कल नहीं कहूंगा। क्योंकि मैं जीवित व्यक्ति हूं। मैं मुर्दा नहीं हूं। जब मैं मर जाऊं तभी तुम्हें मेरे साथ सुविधा हो सकती है, अन्यथा नहीं। तुम्हारी हाथ में जो भी आता है उसे जल्दी से पकड़ लेना चाहते हो। और फिर तुम उसे बदलना नहीं चाहते। भय! लेकिन जीवन बहती गंगा है। वह बहता रहता है। और प्रामाणिक आदमी सदा नदी की भांति होता है। सिर्फ मृत लोग तालाब की भांति होते हैं। उनका पानी भाप बन जाता है, वे ज्यादा से ज्यादा कीचड़ से भर जाते हैं। और वे मुर्दा हैं क्योंकि वे बहते नहीं है।
लेकिन आज मैं जो भी कह रहा हूं वे कल असंगत होनेवाला नहीं है। वह आज से कहीं अधिक बेहतर और श्रेष्ठतर होगा। लेकिन उस श्रेष्ठतर और बेहतर को समझने के लिए तुम्हें उस ऊंचाई तक उठना होगा, नहीं तो वह असंगत मालूम पड़ेगा।
मैं एक सरल सहज आदमी हूं। मेरे पास कोई सिद्धांत नहीं है, न कोई मत है। मेरे पास सिर्फ एक स्पष्टता है। और मेरे पास देखने की आंखें है। और जब मैं देखता हूं कि परिवर्तन जरूरी है, तब मैं फिकर नहीं करता कि इसके मेरे लिए क्या परिणाम होंगे। इसीलिए सारी दुनिया में व्यर्थ ही मेरी निंदा हो रही है। क्योंकि अगर मैं जीसस के खिलाफ कुछ कहता हूं तो ईसाई क्रोधित हो उठते हैं।
तुम्हें आश्चर्य होगा, मैं कुछ पहले जीसस पर बोला, तब यूरोप और अमेरिका के बहुत से ईसाई प्रकाशन उसे प्रकाशित करने को उत्सुक थे। उन्होंने उसे प्रकाशित भी किया। इंग्लैंड की एक ईसाई प्रकाशन संस्था ने दस किताबें प्रकाशित कीं। और अभी कुछ दिन पहले मुझे उनका पत्र मिला, कि आप जो कह रहे हैं उसे अब हम प्रकाशित नहीं कर सकते। मैंने कहा, मैं जो कह रहा हूं उसे तो तुमने कभी प्रकाशित किया ही हनीं। तुम केवल इसलिए प्रकाशित कर रहे थे, क्योंकि मैंने जीसस क्राइस्ट के उज्जवल पक्ष को उजागर किया। अब मैं उस चित्र को पूरा कर रहा हूं। उनका दूसरा पहलू भी तुम्हें दिखाना है। और तुम्हारे पास वह दूसरा पहलू देखने का साहस नहीं है।
मेरी आलोचना में किसी की निंदा नहीं होती। सवाल यह है कि वह सत्य के निकट आता है या नहीं। और सत्य पर किसी का एकाधिकार नहीं है। सत्य इतना विराट है और हम इतने क्षुद्र है। सत्य के इतने पहलू होते हैं, और एक समय हम सिर्फ एक ही पहलू देख सकते हैं, तुम जब दूसरा पहलू देखते हो, तो यदि तुम डरपोक होगे तो तुम चुप रह जाओगे। क्योंकि लोग कहेंगे कि तुम अपना दृष्टिकोण बदल रहे हो। मैं किसी दृष्टिकोण से, किसी सिद्धांत से बंधा नहीं हूं। मेरे दर्शन में जो भी आता है उसे मैं तुम्हें बांटना चाहूंगा।
मैं नहीं चाहता कि तुम मुझसे सहमत होओ। मैं यह भी नहीं चाहता कि तुम मुझसे असहमत होओ। मैं केवल इतना ही चाहता हूं कि तुम खुले रहो, उपलब्ध रहो, मेरी बात सुनने के लिए तैयार रहो, यदि उसमें कोई सत्य है तो वह तुम्हारे हृदय तक पहुंचेगा। यदि उसमें कोई सत्य नहीं है तो वह अपने आप गिर जाएगा, तुम्हारे हृदय तक नहीं पहुंचेगा
ओशो
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