जीना पड़ेगा उस मार्ग पर, जहां से जीवन जाता है और वह मार्ग है जागरुकता – ओशो
जापान में एक राजा ने अपने युवा लड़के को एक फकीर के पास भेजा। फकीर गांव में आया था, राजधानी में और फकीर ने कहा था, जीवन में एक ही बात सीखने जैसी है और वह है जागना।
उस राजा ने कहा, यह जागना! हम रोज सुबह जागते हैं, वह जागना नहीं है ???
उस फकीर ने कहाः अगर वही जागना होता तो दुनिया सत्य को कभी का जान लेती। लेकिन सत्य का कोई पता नहीं है, यह जागरण कैसा है! यह जागना नहीं है, क्योंकि जागी हुई चेतना को फिर तत्व को जानने में कौन सा अवरोध है ???
राजा से कहा उसने कि, मैं , जागना-एक ही सूत्र जानता हूं जीवन को सीखने का।
राजा ने अपने लड़के को कहा, जा और उस फकीर के पास रह। मैंने तो जीवन खो दिया। तू कोशिश कर कि क्या इसके पास जागना सीख सकता है ???
वह राजकुमार गया। उस फकीर ने कहाः सुनो, मेरी शिक्षा किताबें पढ़ने वाली नहीं है। मेरी शिक्षा बहुत अनूठी है। कल सुबह से तुम्हारा पाठ शुरू होगा।
यह लकड़ी की तलवार देखते हो ???
कल सुबह से मैं हमला शुरू करूंगा तुम्हारे ऊपर।
तुम किताब पढ़ रहे होगे, मैं पीछे से हमला शुरू कर दूंगा। बचाने की सावधानी रखना।
तुम खाना खा रहे होगे, हमला हो जाएगा।
तुम स्नान करने कुएं पर खड़े होगे, हमला हो जाएगा।
चैबीस घंटे कहीं भी हमला हो सकता है। तो सजग रहना,
सावधान रहना,
बचाव करना, नहीं तो हड्डी-हड्डी टूट जाएगी। राजकुमार बहुत घबड़ाया कि यह कौन सी शिक्षा शुरू होगी!
लेकिन मजबूरी थी। पिता ने उसे भेजा था।
सभी बच्चे मजबूरी में पढ़ने जाते हैं। पिता भेज देते हैं, उनको जाना पड़ता है। उसको भी जाना पड़ा था, लौट सकता नहीं था।
दूसरे दिन से शिक्षा शुरू हो गई। वह पढ़ रहा है कोई किताब, पीछे से हमला हो गया। चोंक के तिलमिला उठा।
एक दिन, दो दिन, तीन दिन बीते, सब हड्डी-पसलियों पर चोट हो गई,
जगह-जगह दर्द होने लगा।
लेकिन साथ ही उसके खयाल में आने लगी एक नई चीज, जिसका उसे पता ही नहीं था।
एक सावधानी सांस-सांस के साथ रहने लगी कि हमला होने को है।
पता नहीं कब हो जाए, किस क्षण ???
वह हर वक्त जैसे सचेत,
जैसे खयाल में,
जैसे स्मृति में रहने लगा।
अब खयाल आता है,
जरा सी हवा चल जाए, पत्ते हिल जाएं तो वह जाग जाए।
जरा सी घर में खुट-पुट हो और किसी के घर में कदम पड़ें और वह सचेत हो जाए कि हमला होने को है–बचाव करना है।
सात दिन बीतते-बीतते वह बहुत हैरान हो गया।
यह गुरू अदभुत था। चोट फिर हड्डियों पर नहीं हो रही थी, भीतर चेतना पर भी हो रही थी।
वह कोई चीज नई थी,
कोई चीज उठ गई थी, जो भीतर सोई हुई थी।
तीन महिने बीत गए,
रोज-रोज यह चलता रहा।
और रोज-रोज उस युवक ने पाया कि फर्क पड़ रहा है कोई बहुत गहरा। धीरे-धीरे वह हमले से बचाव करने लगा।
हमला होता, हाथ पहुंच जाते। कोई चीज निरंतर सावधान थी, निरंतर अटेंटिव थी, हाथ पहुंच जाते, रोक लेता। तीन महिने बीत गए, हमला करना मुश्किल हो गया है। वह जो हमला करता है, वे हमले रोक लिए जाते हैं।
तीन महीने बीत जाने पर गुरु ने कहाः पहला पाठ पूरा हुआ। अब कल से दूसरा पाठ शुरू होगा। अब नींद में भी सावधान रहना। सोते में भी हमला कर सकता हूं।
उस युवक ने माथा ठोंक लिया, जागने तक गनीमत थी, किसी तरह वह बचाव कर लेता था, सोने में क्या होगा ???
और सोते में हमले कैसे रोके जा सकेंगे ???
लेकिन एक बात का उसे खयाल आ गया था। इन तीन महिनों में उसने कोई चीज बहुत अदभुत रूप से भीतर जागती हुई पाई थी, जैसे कोई बुझा दीया जल गया हो।
एक बहुत सावधानी कदम-कदम पर आ गई थी,
श्वास-श्वांस पर आ गई थी और एक अजीब अनुभव हुआ था उसे कि जितना वह सावधान रहने लगा था उतने ही विचार कम हो गए थे। मन मौन हो गया था।
सावधानी के साथ-साथ यह जो अटेंशन उसे चैबीस घंटे देनी पड़ रही थी, उससे धीरे-धीरे विचार क्षीण हो गए थे; मन भीतर साइलेंस में, एक मौन में रहने लगा था। बड़े आनंद की खबरें भीतर से आ रही थीं, इसलिए वह तैयार हो गया कि देखें, इस दूसरे पाठ को भी देख लें।
और दूसरे दिन से दूसरा पाठ शुरू हो गया, नींद में भी हमले होने लगे। लेकिन एक महिना बीतते-बीतते नींद में भी उसे होश रहने लगा। नींद भी चलती थी, भीतर कोई तेज धारा चेतना की बहती रहती, जिससे खयाल बना रहता कि हमला हो सकता है। हैरान हुआ वह, सोया भी था, जागा भी था।
आज उसने पहली दफा जाना कि शरीर सोया हुआ है, मैं जागा हुआ हूं।
एक मां सोती है रात, बच्चा बीमार होता है, रोता है, नींद में ही हाथ पहुंच जाता बच्चे पर। शायद सुबह उससे पूछो, उसे पता भी न हो कि मैंने रात बच्चे को चुप किया था। हम सारे लोग यहां सो जाएं आज, और रात में कोई आधी रात में आकर बुलाए, राम, राम तो जिसका नाम राम हो, वह पूछेगा, क्या है, लेकिन बाकी लोगों को पता ही न चलेगा कि कोई आवाज हुई। जिंदगी भर एक नाम के प्रति अटेंशन रही है, राम, वह भीतर गहरी हो चली है। कोई रात में भी बुलाता है तो वह सावधान हो जाता है आदमी, जिसका नाम राम है।
तीन महीने बीतते-बीतते नींद में भी हमला मुश्किल हो गया। नींद में भी हमला होता और हाथ रोक लिया जाता।
गुरु ने कहा तेरे दो पाठ पूरे हो गए। अब तीसरा और अंतिम पाठ शुरू होने को है।
उस युवक ने सोचा, अब कौन सा पाठ होगा–जागना और सोना दो बातें थीं ???
उसके गुरु ने कहाः अब तक लकड़ी के तलवार से हमला करता था, कल ही से असली तलवार से हमले किए जाएंगे। यह प्राण को कंपा देने वाली बात थी, लकड़ी फिर भी लकड़ी थी, चोट ही करती थी, इसमें तो प्राण भी जा सकते हैं।
लेकिन उस युवक ने देखा था, इन तीन महिनों में रात, उसके भीतर जैसे कोई स्थंभ खड़ा हो गया था जागरुकता का।
विचार जैसे समाप्त हो गए। जीवन से जैसे सीधी पहुंच–जीवन से सीधा संपर्क होने लगा था। एक अदभुत आनंद और आलोक फैल रहा था। उसने सोचा, अंतिम पाठ छोड़ कर चला जाना ठीक नहीं। पता नहीं और क्या छिपा हो ???
वह राजी गया।
असली तलवार के हमले शुरू हो गए। हाथ में चैबीस घंटे, सोते-जागते ढाल भरी रहती थी, लेकिन पंद्रह दिन बीत गए, गुरु एक भी चोट नहीं पहुंचा पाया। हर अंधेरे कोने से इंतजाम में की गई चोट भी झेल ली गई।
बैठा था युवक एक दिन सुबह, एक अचानक खयाल उसे आया।
एक झाड़ के नीचे वह बैठा है दूर, बहुत दूर। उसका गुरु दूसरे झाड़ के नीचे बैठ कर कुछ पढ़ता है। सत्तर साल का, अस्सी साल का बूढ़ा आदमी है।
इतने में अचानक खयाल आया, यह बूढ़ा छह महीने से मुझे परेशान किए हुए है,
सावधान!
सावधान!
सावधान!
हर तरफ से हमला करता है। आज मैं भी इस पर हमला करके देख लूं कि यह खुद भी सावधान है या नहीं।
कहीं मैं ही तो परेशान नहीं किए जा रहा हूं ???
ऐसा जब उसने सोचा, उधर उसका गुरु झाड़ के नीचे से चिल्लायाः ठहर-ठहर, ऐसा मत कर देना। वह बहुत घबड़ाया, उसने कहाः मैंने कुछ किया नहीं। उसके गुरु ने कहाः तू तीसरा पाठ पूरा तो कर ले, तब मुझे पता चल जाएगा। जब चित्त पूरा सावधान होता है तो दूसरे पैर की ध्वनि ही नहीं, दूसरे के विचार की ध्वनि भी सुनाई पड़ने लगती है। थोड़ा ठहर, अंतिम पाठ पूरा कर ले।
चित्त की जागरुकता का ऐसा अर्थ है–सावधानी। जैसे हम तलवार से घिरे हुए जीते हों। और हम जी रहे हैं तलवार से घिरे हुए।
मौत चारों तरफ तलवार से घेरे हुए है।
जिंदगी एक सतत असुरक्षा है, इनसिक्योरिटी है।
कोई सुरक्षा नहीं है जीवन में। इस तलवार से घिरे जी रहे हैं। भूल में हैं हम, यदि सोचते हों कि हम सब तरह से सुरक्षित हैं और कोई हमला हम पर नहीं हो रहा है। हर वक्त हमला है, पल-पल हमला है। इस हमले के प्रति बहुत सजग होकर सोचिए।
एक-एक कदम, एक-एक श्वांस, अटेंशनली, तो उसके जीवन में धीरे-धीरे सजगता का जन्म होगा। कोई सोचे–जागे। कोई कली फूल बन जाए और तब ही केवल, जो है विराट जीवन में अनंत, अमृत, उससे मिलन हो। उससे जुड़ जाना, उससे एक हो जाना।
धार्मिकता का अर्थ मेरी दृष्टि में सजगता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
न मंदिरों की पूजा और न प्रार्थना,
न शास्त्रों का पठन और पाठन।
यह सोया हुआ आदमी, यह सब करता रहेगा तो यह सब और सो जाने की तरकीबों से ज्यादा नहीं है।
लेकिन जागा हुआ आदमी पाता है–नहीं किसी मंदिर में जाता है पूजा करने को, बल्कि वह पाता है कि जहां वह है, वहीं ‘वह’ भी है।
नहीं फिर किसी मूर्ति में देखने की, खोजने की जरूरत पड़ती है, बल्कि पाता है जो भी है और जो भी दिखाई पड़ता है, वही भगवान है।
धार्मिक आदमी वह नहीं है, जो मंदिर जाता हो। धार्मिक आदमी वह है कि जहां होता है, वहीं मंदिर को पाता है।
धार्मिक आदमी वह नहीं है जो प्रार्थना करता हो, धार्मिक आदमी वह है, जो पाता है कि जो भी किया जाता है, वह प्रार्थना हो गई।
धार्मिक आदमी वह नहीं है कि भगवान की खोज में भटकता हो; बल्कि आंख खोले हुए वह आदमी है, जो पाता है कि जहां भी मैं जाऊं, भगवान के अतिरिक्त कोई यंत्र से तो मिलना नहीं है। लेकिन यह होगा एक जागरुक चित्त और जागरुक चित्तता ही जीवन की परिपूर्ण अनुभूति है।
मत पूछें मुझसे की जीवन क्या है और न जाएं किसी को सुनने जो समझाता हो कि जीवन क्या है ???
जीवन कोई किसी को नहीं समझा सकेगा। जीवन कोई समझाने की बात है ???
प्रेम कोई समझाने की बात है ???
सत्य कोई समझाने की बात है ???
कोई शब्दों से और विचारों से कुछ कह सकेगा उस तरफ ???
नहीं, कभी कोई कुछ नहीं कह सका।
जीवन तो खुद जानने की बात है।
जीना पड़ेगा उस मार्ग पर, जहां से जीवन जाता है और वह मार्ग है जागरुकता।
वह मार्ग है सचेतता का। उठते-बैठते, चलते, देखते, बात करते जिएं।
देखते हुए, आंख खोले हुए, होश से भरे हुए, तो रोज-रोज कोई जागने लगेगा, कोई प्राण की ऊर्जा विकसित होने लगेगी। और एक दिन–एक दिन जो महाविराट ऊर्जा है जीवन की उससे सम्मिलन हो जाएगा। जैसे कोई सरिता बहती है पहाड़ों से और भागती चली जाती है, भागती चली जाती है।
न मालूम कितने मार्गों को पार करती है, कितनी घाटियों को छलांगती है और एक दिन सागर तक पहुंच जाती है। ऐसे ही जागरूकता की धारा जो व्यक्ति जगाना शुरू कर देता है–वह सारी बाधाओं को, सारे पहाड़-पर्वतों को पार करती पहुंच जाती है,जहां प्रभु का सागर है, जहां जीवन का सागर है।
जीवन मेरे लिए परमात्मा का ही पर्यायवाची है। जीवन यानी परमात्मा।
जीवन और प्रभु भिन्न नहीं है।
लेकिन जो सोए हैं पुजारी अपने मंदिर में, उनके द्वार पर आएगा जीवन का रथ और वापस लौट जाएगा। जीवन तो रोज आता है द्वार पर उसके
ओशो
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