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हम सबको खोजने चलते हैं, प्रभु को छोड़कर।

जीवन एक संगीत - हिंदी कहानी

अठारह सौ अस्सी में यूरोप में अल्तामिरा की गुफाएं खोजी गईं और उन गुफाओं की खोज के वक्त एक बहुत मजेदार घटना घटी। एक बहुत बड़े जमींदार डान मार्शिलानो की जमीन पर अचानक पहाड़ियों में ये गुफाएं मिल गईं। एक कुत्ता भूल से गुफा के भीतर कूद गया। वर्षा में कुछ मिट्टी गलकर गिर गई; गङ्ढा हो गया; और कुत्ता उसके अंदर चला गया, फिर निकल न पाया। वहां उसने बहुत शोरगुल मचाया। तब मार्शिलानो के किसान, मजदूर जाकर किसी तरह खोदकर कुत्ते को निकाले। कुत्ता तो निकल आया, साथ में गुफाओं का आविष्कार हो गया। बड़ी गहरी और बड़ी अदभुत गुफाएं थीं। मनुष्य के पूरे इतिहास की दृष्टि उन गुफाओं ने बदल दी।

मार्शिलानो को पता चला, तो वह इतिहास का विद्यार्थी था, उसने तत्काल सब इंतजाम किया। विशेषकर वह मनुष्य की हड्डियों का अध्ययन कर रहा था वर्षों से। तो उसने सोचा कि ये गुफाएं न मालूम कितनी पुरानी होंगी, तो हड्डियां, कीमती हड्डियां इसमें मिल सकती हैं, और किसानों ने खबर दी कि बहुत अस्थिपंजर हैं।

तो मार्शिलानो ने सर्चलाइट लेकर गुफाओं को खुदवाया और उनमें प्रवेश किया। छः दिन तक रोज घंटों वह सरककर गुफाओं में जाता, एक-एक हड्डी पर नजर रखता। हड्डियां खोजीं उसने बहुत। सातवें दिन उसकी छोटी लड़की ने, जो सात-आठ साल की लड़की थी, उसने कहा, मैं भी अंदर चलना चाहती हूं। वह लड़की को ले गया।

आप जानकर हैरान होंगे कि अल्तामिरा की असली गुफाएं उस लड़की ने खोजीं सात साल की। सर्चलाइट लेकर वह जो इतिहासज्ञ पिता था, वह नहीं खोज पाया। बड़ी अदभुत घटना घटी। जब वह लड़की को लेकर गया, तो वह अपना सरककर अपनी हड्डियों की जांच-पड़ताल में लग गया कि जमीन में एक हड्डी भी चूक न जाए; सर्चलाइट पास था। अचानक लड़की चिल्लाई, पिताजी, पिताजी, ऊपर देखिए!

छः दिन से वह जा रहा था रोज, लेकिन उसने ऊपर आंख ही नहीं उठाई थी। वह नीचे हड्डियां बीनने में इतना व्यस्त था कि गुफाओं के ऊपर सीलिंग पर क्या है, उसने नजर न डाली थी। सीलिंग पर तो इतने अदभुत चित्र थे, जैसे कल रंगे गए हों। और ठेठ बीस हजार साल पुराने चित्र निकले।

अल्तामिरा की गुफाएं सारे जगत में प्रसिद्ध हो गईं उन चित्रों के कारण। इतने अदभुत चित्र थे कि जिसने भी उन्हें बनाया होगा, पिकासो से कम सामर्थ्य का चित्रकार नहीं था। तो सारा इतिहास बदलना पड़ा। क्योंकि खयाल था कि पुराने जमाने में तो किसी आदमी के पास इतनी बड़ी कला नहीं हो सकती। लेकिन पाया यह गया कि वे जो अल्तामिरा की गुफाओं पर जो जानवरों के चित्र हैं, सांड के चित्र हैं, वे इतने कलात्मक हैं और इतने अदभुत हैं कि आज भी कोई चित्रकार उनका मुकाबला नहीं कर सकता।

हैरान हुआ मार्शिलानो कि वह छः दिन से रोज सर्चलाइट लेकर आ रहा था, लेकिन सर्चलाइट उसका जमीन पर लगा था। वह हड्डियां खोज रहा था कि कोई हड्डी चूक न जाए। तो ऊपर नजर नहीं गई।

यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि हम सब भी जब तक प्रकृति में हड्डियां खोजते रहते हैं…। बड़ा सर्चलाइट हमारे पास है। लेकिन ऊपर सीलिंग की तरफ नहीं उठ पाता, वह परमात्मा की तरफ नहीं उठ पाता। टू मच आक्युपाइड जमीन पर सरकने में और प्रकृति में खोज करने में। हड्डियों की ही खोज है; कुछ और बहुत खोज नहीं है। जब आप कामवासना में खोज रहे हैं, तो हड्डियों से ज्यादा कुछ भी नहीं खोज रहे हैं। और जब आप सिंहासनों पर चढ़ने में खोज कर रहे हैं, तब भी हड्डियों से ज्यादा कुछ नहीं खोज रहे हैं। हड्डियों को ही चढ़ा रहे हैं सिंहासनों पर। जब आप धन खोज रहे हैं, तो सिर्फ हड्डियों की सुरक्षा खोज रहे हैं; और कुछ भी नहीं खोज रहे हैं। जब आप शक्ति खोज रहे हैं, तो हड्डियों के लिए केवल इंतजाम कर रहे हैं सिक्योरिटी का; और कुछ भी नहीं कर रहे हैं।

प्रकृति में उलझा हुआ मन ऊपर की तरफ नहीं उठ पाता। उसे नहीं देख पाता वह, जो वृहत वर्तुल है, वह जो ग्रेटर सर्किल है। जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं, मुझमें है प्रकृति, लेकिन मैं प्रकृति में नहीं हूं। उस तरफ नजर नहीं उठ पाती है।

तो जो प्रकृति में उलझा है, वह कृष्ण के वचन से ठीक से समझ ले, क्योंकि इस बात की भ्रांति है कि अगर कृष्ण यह कहते कि मैं प्रकृति में हूं और प्रकृति मुझमें है, तो भी गलत नहीं था। क्योंकि छोटा वर्तुल अगर बड़े वर्तुल में है, तो बड़ा वर्तुल भी किसी न किसी अर्थ में छोटे वर्तुल में है। अगर लहर सागर में है, तो सागर कितने ही क्षुद्रतम अर्थों में, लहर के भीतर है। तर्क किया जा सकता है। क्योंकि यह असंभव है कि बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में न हो, तो छोटा वर्तुल बड़े वर्तुल में कैसे हो सकेगा? माना कि पूरा बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में नहीं हो सकेगा, अंश ही होगा; लेकिन होगा तो ही।

लेकिन कृष्ण उस तर्क को मद्दे-नजर कर रहे हैं, जानकर। क्योंकि एक बार आदमी को यह पता चल जाए और यह खयाल में आ जाए कि प्रकृति में परमात्मा है और परमात्मा में प्रकृति है, तो शायद हम प्रकृति से ऊपर नजर उठाने को कभी राजी न हों। कभी राजी न हों। क्योंकि हम कहें कि जब प्रकृति में ही परमात्मा है–खाने-पीने में, कपड़े पहनने में, मकान बनाने में–तो फिर और परमात्मा की खोज की जरूरत क्या है? जब इस शरीर में ही परमात्मा है, तो फिर शरीर ही परमात्मा हो जाएगा। हम तत्काल इस बात को अपने मतलब की तरफ झुका लेंगे।

और आदमी बड़ा कुशल है, वह सब चीजों के अर्थ अपनी तरफ झुका लेता है। क्योंकि दो ही रास्ते हैं। या तो अर्थ की तरफ आप झुकिए, या तो सत्य की तरफ आप झुकिए; या सत्य को अपनी तरफ झुका लीजिए। अन्यथा बेचैनी अनुभव होगी।

जिस दिन कोई जानेगा बड़े वर्तुल को, परमात्मा को, उस दिन वह शायद यह भी जान ही लेगा कि प्रकृति भी उसमें ही है, वह भी प्रकृति में है। लेकिन हमसे यह कहना, यह सत्य कहना, खतरनाक है। कहना इसलिए खतरनाक है कि अगर हमें यह बात पक्की हो जाए कि हम जो कर रहे हैं, उसमें भी परमात्मा है, तो फिर शायद परमात्मा की तरफ नजर उठाने का खयाल ही मिट जाए। जरूरत भी नहीं रह जाती।

इसलिए कृष्ण बहुत सोच-विचारकर कहते हैं, प्रकृति मुझमें है अर्जुन, लेकिन मैं प्रकृति में नहीं हूं। तो तू प्रकृति में कितना ही खोजता रहे, मुझे न पा सकेगा। हां, मुझे पा ले, तो प्रकृति तो पाई ही हुई है।

यह भी बहुत मजे की बात है। कोई आदमी कितना ही धन खोजे, धनी नहीं हो पाता। लेकिन कोई आदमी परमात्मा को खोज ले, तो दरिद्रता भी धन हो जाती है।

जीसस का वचन है, सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गॉड, देन आल एल्स विल बी एडेड अनटु यू। खोज लो पहले प्रभु के राज्य को, और फिर सब–सब–साथ में मिल जाएगा।

लेकिन हम सबको खोजने चलते हैं, प्रभु को छोड़कर। तब प्रभु तो मिलता ही नहीं, सबमें से भी कुछ नहीं मिलता है। सिर्फ दौड़-धूप; और आखिर में राख हाथ में लगती है–सपनों की राख, आशाओं की राख। यश कोई कितना ही खोजे, यश हाथ लगेगा नहीं। और कोई परमात्मा को खोज ले, तो यशस्वी हो जाता है, तत्क्षण। कोई कितना ही प्रेम खोजे, प्रेम मिलेगा नहीं। और कोई प्रार्थना को खोज ले, तो जीवन प्रेम की सुगंध से भर जाता है; ऐसी सुगंध से, जो फिर कभी चुकती नहीं।

हम कुछ भी खोजें प्रकृति में, हमारे हाथ में कुछ लगेगा नहीं; मिट्टी-पत्थर ही लगेंगे। यद्यपि प्रत्येक मिट्टी-पत्थर के भीतर परमात्मा छिपा है। लेकिन जो प्रकृति में खोजने चला है, वह परमात्मा के प्रति अंधा होता है। वह नैरोड, उसकी कांशसनेस तो हड्डियों में अटकी रहती है, नीचे। वह ऊपर की तरफ नहीं उठ पाता है।

कितनी निकट थीं अल्तामिरा की वे चित्रावलियां! जरा-सा तो सर्चलाइट ऊपर उठाना था। सर्चलाइट हाथ में था। जरा तो आंख ऊपर करनी थी। लेकिन जो नीचे खोजने में लगा है, उसकी आंख ऊपर नहीं उठ पाती।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, सब मुझमें हैं अर्जुन, लेकिन मैं उनमें नहीं हूं।

बड़ी मजेदार बात है। अगर कोई आदमी परमात्मा के बिना सात्विक भी हो जाए, तो भी धार्मिक नहीं हो सकता। अगर कोई व्यक्ति परमात्मा के बिना सात्विक भी हो जाए, परम सात्विक हो जाए, तो भी धार्मिक नहीं हो सकता। और कोई व्यक्ति कितना ही तामसिक और कितना ही राजसिक हो, अगर परमात्मा में प्रवेश कर जाए, तो तत्काल सात्विक हो जाता है।

अगर आदमी अपने ही बल से सात्विक हो जाए, तो सिवाय अहंकार के और कुछ निर्मित नहीं होता। पायस, पवित्र अहंकार निर्मित होता है। और कोई व्यक्ति कितना ही बुरा हो, दीन हो, हीन हो, पापी हो, और परमात्मा में छलांग लगा जाए, तो तत्काल, जैसे आग में कचरा जल जाए, ऐसे परमात्मा की आग में सब पाप जल जाते हैं।

और परमात्मा में जब कुछ जलता है, तो अहंकार नहीं बचता, वह भी जल जाता है। और आदमी जब कुछ भी जलाए, कुछ भी मिटाए, कुछ भी बनाए, एक चीज पीछे बची रह जाती है–मैं पीछे बचा रह जाता है।

इसलिए सात्विक से सात्विक व्यक्ति भी एक सूक्ष्म अहंकार से पीड़ित रहता है। और परमात्मा तभी उपलब्ध होता है, जब अहंकार की पतली से पतली, बारीक से बारीक दीवाल भी बीच में न रह जाए। और कोई बाधा नहीं है।

कृष्ण का भी मतलब वही है, जो क्राइस्ट का है, कि पहले तू परमात्मा को खोज।

अर्जुन क्या कह रहा है? अर्जुन यह कह रहा है कि मुझे इस युद्ध से जाने दो। यह तामसिक, राजसिक मालूम पड़ता है। मैं सात्विक होना चाहता हूं। मुझे हट जाने दो। यह सब बात बड़ी गड़बड़ मालूम पड़ती है। यह लोगों को मारना–यश के लिए, धन के लिए, राज्य के लिए–क्षुद्र मालूम पड़ता है। यह मेरे सात्विक मन को प्रीतिकर नहीं लगता; यह श्रेयस्कर नहीं है। मुझे जाने दो कृष्ण, मुझे हट जाने दो, इस युद्ध से। इससे तो बेहतर भीख मांगकर जी लेना होगा। इससे तो बेहतर भिखारी हो जाना होगा। इससे तो बेहतर किसी वृक्ष के नीचे, किसी अरण्य में बैठ जाऊंगा, प्रार्थना में डूब जाऊंगा। यह सब मैं नहीं करना चाहता हूं। यह बड़ा तामसिक मालूम पड़ता है।

 

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